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প্ৰকাৰিয়াৰ सम्यग्दर्शनके चार भेद और उनका पृथक् २ प्रयोजन ( १ ) तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । जोवाजीवादिक सात सत्त्वों ( पदार्थों ) को यथार्थ (सम्यक् ) विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धा करनेको सम्यग्दर्शन कहते हैं, ऐसा स्थविर आचार्य उमास्वामि महाराज अपने तत्वार्थसूत्र ग्रन्थमें नं० २ अध्याय में कहते हैं। इसका प्रयोजन सिर्फ इतना है कि अन्यवादियोंके द्वारा माने गये तस्योंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन नहीं कहलाता, कारण कि उनमें यथार्थता नहीं पायी जाती ये सब एकान्त द्वारा कल्पित किये गये हैं, उनका खण्डम हो जाता है। युक्ति आगम प्रमाणसे उनकी सिद्धि नहीं होती, अतएव वे निराधार सिद्ध होते हैं, जैसे कि सांख्य मतवालोंके २५ तत्त्व, नैयायिक मतवालोंके १६ तत्त्व, चार्वाक मतवालोंके ५ तत्व इत्यादि । फलत: जनमतावलम्बियों के द्वारा अनेकान्त ( स्याद्वाद-कथंचित् कथन ) न्याय ( दुष्टि ) से जो मोक्षमार्गोपयोगी जीव अजीब आदि सात तत्त्व सिद्ध किये गये हैं, उनका श्रद्धान करना ही 'सम्यग्दर्शन' हैद हो सकता है.---अन्यका श्रद्धान करना सम्बग्दर्शन नहीं हो सकता। इस प्रकार अन्यको व्यावृत्ति करना मात्र, उक्त सूत्र द्वारा सम्यग्दर्शनका लक्षण बतानेका प्रयोजन { उद्देश्य है ऐसा सम्मान :
(२) सच्चे देव मुरु शास्त्रकी श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है। यह प्रण भी पृथक् प्रयोजन रखता है ! अर्थात् देवगुरु शास्त्रकी परीक्षा करके जो सिद्ध हो ऐसे सच्चे ( वीतराग सर्वश ) देवकी तथा उन्हींके द्वारा कहे गये सच्चे शास्त्रोंको तथा उन्हीके अनुयायी ( शिष्य ) सच्चे तपस्वियोंको . श्रद्धा प्रतौति भक्ति आदि करनेको 'सम्यग्दर्शन' कहते हैं किन्तु उनसे भिन्न ( विपरीत ) जो कुदेव ( रागो द्वेषी अल्पज्ञ ) हैं, उन्हींके द्वारा बनाये गये जो रागादिपोषक शास्त्र ( कुशास्त्र ) हैं तथा उन्हीके अनुयायी जो पाखण्डो तपस्वी ( कूगुरु ) हैं, उनकी श्रद्धा भक्ति स्तुति करना सम्यग्दर्शन नहीं है। ऐसा उनसे भेद करने के लिए या उनके प्रति सेवाभाव या प्रवृत्ति हटाने के लिए उक्त लक्षण बताया गया है । यह पृथक् प्रयोजन है परसे व्यावृत्ति लक्ष्य है।
(३) स्वपरका भेद ज्ञान करना सम्यग्दर्शन है । अर्थात् आत्मा ( जोच ) क्या है और पर { शरीरादि ) क्या है ? ऐसा पृथत २ समीचीन ( सम्यक् ) ज्ञान व श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है। जबतक प्रत्येक पदार्थकी भिन्नताका यथार्थ ज्ञान श्रद्धान न हो तबतक सम्यग्दर्शन हो ही नहीं सकता। पदार्थको स्वतन्त्रताका ज्ञान होना अनिवार्य है, आत्माकी स्वाधीनताका जानना जरूरी है। इसका मुख्य प्रयोजन यह है कि जब यह प्रतीति हो जायगी कि मेरा आत्मा सब परसे भिन्न है तब स्वयं वह परमें रागद्वेषादि विभीव भाव नहीं करेगा, उनसे विराग हो जायगा, जिससे उसका भला होगा, भूल मिटेगी जो कर्तव्य है एवं लक्ष्यभूत है, अर्थात् वही जीव प्रतिज्ञाका निर्वाह ( पालन ) कर सकेगा इत्यादि, परसे ममत्त्वका छुड़ाना इसका प्रयोजन है । अस्तु
४) आत्मश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । अर्थात् अपनी आत्माका जो कि एकत्व विभक्तरूप है, सम्पक श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। इसका प्रयोजन सिर्फ अपना ही बल सरोसा करनेसे मोक्ष