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फिर शिष्य का कर्तव्य यह है, आत्मशक्कि विचार के ।
खुद मोक्षमार्ग संभालना, ना पंचना' में आय के ॥२०॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ एवं ] पूर्वोक्त प्रकार [ सम्यग्दर्शनरोधचरित्रवारमको मोक्षमार्ग: ] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तीन भेदरूप मोक्षका मार्ग है [तस्थापि यथाशक्ति नित्यं निषेव्यो भवति ] सो श्रावकको भी अपनी शक्ति के अनुसार उसका निरन्तर सेवन करना चाहिए अर्थात् शक्तिके अनुसार एकदेशरूप मोक्षमार्ग भी प्राप्तव्य है, उसे नहीं छोड़ना चाहिएअमृत जितना मिल सके ले लेना चाहिए, इसी में बुद्धिमानी है सिर्फ थोड़ा संतोषकी जरूरत है।।२०।।
भावार्थ- साधारण रूपसे, मोक्षमार्ग, निश्चय और व्यवहार ( अभेद व भेद ) के भेदसे दो प्रकार कहा गया है, जो कारण कार्यकी अपेक्षासे सत्य है ( स्वभावरूप या सत् है ) परन्तु यह व्यवस्था अभिन्न प्रदेशोंकी ही है, भिन्न प्रदेशोंकी नहीं है, जैसी कि बिना समझे अज्ञानीजन कहा . करते हैं व मानते हैं। सदनुसार सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र ये तीनों आत्माके स्वभाव हैं और अभिन्न प्रदेशी हैं, एकात्माके प्रदेशों में ही व्याप्त रहते हैं, अतएव वे मोक्षके कारण ( मार्ग) अवश्य हैं, किन्तु जबतक साधक या मुमुद जीवकी उनमें भेवदृष्टि रहती है अर्थात् उसके ज्ञानमें ( उपयोगमें ) विकल्प रहता है अथवा उपयोग निर्विकल्प या स्वस्थ नहीं होता तबतक संवर व निर्जरा नहीं होती अपितु आस्रव व बन्च होता है, जिससे मोक्षका होना असंभव है। मोक्षका कारण उपयोगशुद्धि और योगशुद्धि है । अर्थात् उपयोग और योगकी अशुद्धता संसारका कारण है और उन्हींकी शुद्धता मोक्षका कारण है यह भेद है वास्तविकता है। फलतः सम्यग्दर्शनादिके विषयमें भेद या विकल्प होना व्यवहार दशा है और विकल्प नहीं होना निर्विकल्प दशा है ( समाधि व ध्यान है-एकाग्रता है--सामाधक हैं ) उसीसे मोक्ष होता है किम्बहूना । विकल्पका कारण रागद्वेषादि विकारी भाव हैं अतः उनके रहते आत्म-कल्याण कदापि नहीं हो सकता यह भाव है । अस्तु। व्यवहार नयकी दृष्टिसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रके अनेक भेद बताये गये हैं परन्तु निश्चमकी दृष्टि से सबमें अभेद है--विकल्प या प्रदेश भेद नहीं है।
प्रतादिक धारण करनेकी कचि या अभिलाषा होना यह शुभोपयोग या धर्मानुराग है, जिससे पुण्यबन्ध होता है मोक्ष नहीं होता यह शुद्ध कथनी है किन्तु उक्त भाव कब होते हैं जब जीवका उपयोग निज स्वरूप में स्थिर । एकाग्र नहीं रहता याने शद्धोपयोगसे च्यत होता है। इस च्यत होनेका नाम ही छेद है अर्थात् शुद्धोपयोगमें छेद हो जाता है । अखण्डमें खण्ड हो जाता है) जो एक अपराध है। कारण कि वह छेदका होना अर्थात् हिंसाका होना है-स्वभाव भावका घात है, जिसका फल बन्धको सजाका मिलना है यह न्याय ( निर्णय ) है। ऐसी स्थितिमें प्रतिज्ञा भ्रष्ट होना अर्थात् प्रतिज्ञामें छेद करना, सम्यग्दृष्टि विरागीके लिए कभी इष्ट ( उपादेय ) नहीं होता उसका प्रयत्न हमेशा प्रतिज्ञापर दृढ़ रहने का ही रहता है। यदि कहीं उसकी प्रतिज्ञा पर आँच आती है तो उसको असह्य विषाद ( दुःख ) होता है और तत्काल वह उसे हटानेका प्रयास करता
१. ठगोरी बातोंमें आकर।
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