________________
-".
७७
भूमिका श्री समय में ३ घातिया कर्मोकी प्रकृतियोंका भी क्षय कर केवली सर्वज्ञ पीतरागी बन जाता है। और जो विशुद्ध या समल ( मलीन ) आत्मशक्तिका प्रयोग करता है (उपशम श्रेणी माड़ता है। वह उन कर्म प्रकृतियोंका क्षय नहीं कर सकने के कारण केवली सर्वज्ञ वीतरागो नहीं बन पाता व संसारमें बहुत समयतक निवास करता है । यह परिणामोंके भेदसे वणी चढ़ने में या प्रक्रिया ( साधना ) करने में व फल प्राप्त करने में भेद जानना । देखो ! मुनिमार्ग सरल नहीं है बड़ा कठिन है-लोहे के चना हैं, जिसको हर कोई प्राप्त नहीं कर सकता वह मोक्ष का मार्ग है- वीतराग परिणामरूप है, शुद्ध धर्म और चारित्ररूप है। उससे भिन जो सरागपरिणामरूप है, अशुद्ध धर्मरूप है, अचारित्र रूप है वह कभी मोक्षमार्ग नहीं हो सकता । अतएव शुभरागरूप चारित्रको शुभप्रवृत्तिको चारित्र कहना या मानना व्यवहार है, निश्चय नहीं है किम्बहुना | मुनिलिङ्ग या मुनिके स्वरूप वात्रत नीचे टिप्पणी में अन्य ग्रन्थोंका उद्धरण दिया गया है सो स्पष्ट समझ लेना । अस्तु ।
उपधि ( २४ चौबीस प्रकार प्ररिग्रह ) का त्याग करना उत्सर्गमार्ग मुनिका है उसीसे वह मोक्ष जा सकता है, मोक्ष जानेका वही एक ( अद्वितीय ) उपाय या साधन है, किन्तु यक्षिके अभाव में देशकाल आदिके अनुसार अरुचिपूर्वक कुछ परिग्रहको भी मुनि रखता है जैसे आहारादि करना पीछी कमण्डलु आदि लेना वसतिकाका आश्रय लेना, आदि २1 परन्तु वह अपवाद मार्ग है जो सदैव हेय है और उसमें भी प्रतिबन्ध है अर्थात् अपवाद मार्ग में भी जो लोकमर्यादा एवं चरणानुयोगकें विरुद्ध ( बदनामी करानेवाले ) कार्य हैं उन्हें वह नहीं कर सकता । अन्यथा वह जयदत्ती कह.. लायेगी। सभी रसोंका ग्रहण करना, सभी पर्वोंमें आहार लेना, द्रव्यकी याचना करना आदि अपवाद मार्गको दुषित ( कलंकित वदनाम ) करनेवाले हैं अतएव वे यथायोग्य हेय हैं। तात्पर्य यह कि अपवादमार्ग में सभी को छूट ( स्वतन्त्रता ) नहीं है । जैसे कि चौथे गुणस्थानवाला सागार ( गृहस्थसम्यग्दृष्टि ) यद्यपि अवती या असंयमी होता है, जिसके प्रसस्थावर जीवोंकी हिंसाका भी त्याग नहीं होता, न इन्द्रियसंयम वगैरह वह पालता है ( पंचेन्द्रियोंके विषयोंका सेवन करता है ) तथापि अप्रयोजनभूत ( प्रयोजन रहित ) सभी कामों के न करनेका प्रतिबन्ध (निषेध) उसके बराबर रहता है और उसका पालन उसके लिए अनिवार्य है, अन्यथा वह सम्यग्दृष्टि नहीं है ऐसा समझना चाहिए। उसी तरह व्रतो भी प्रतिबन्ध रहित स्वेच्छाचारी कभी नहीं हो सकता यह न्याय व सिद्धान्त है, इसको सदैव ध्यान में रखना चाहिए। उपधि । परिग्रह ) वाला जीव मूर्च्छाबानू, आरम्भवान्. असंजमी होता है ऐसा प्रवचनसार में खुलासा लिखा है किम्बहुना ।
१. भावो य पदमलिगं ण दव्वलिगं व जाण परमत्थं ।
भावी कारणभूदो गुणदोसाणं जिणा त्रिति ॥ २॥ भावपाहुड |
farararaaraat निरारम्भोपरिग्रहः, ज्ञानध्यानतपोरवतः तपस्वी स प्रशस्यते ॥१०॥ रत्नकरण्डा ॥ पूज्यपाद वैराग्यं तस्यविज्ञानं नैर्ग्रन्यं समचित्तता, परोषह्यचेति पंचते ध्यानहेतवः ॥
एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते ।
ततो मयं ज्ञातुर्न लिगं मोक्षकारणम् ॥ २३८ ॥ समयसारकलश | ज्ञान - आत्मा ।