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द्वितीय अध्याय
भूमिका आचार्यदेव, संसारस्थ जीवोंमेंसे असाधक व साधक ( संसारी एवं मोक्षगामी) दो तरहके जीवोंकी छटनी करके मोक्षमागियों में भी अवती और व्रती तथा प्रतियोंमें भी एक देशवती ( श्रावकवती-विरताविरत ५ गुणस्थानबाले ) व सर्बदेशवती ( मुनिप्रती-विरत ६ गुणस्थानवाले } बताते हुए मुख्य साधक व्रती मुनियोंकी वृत्ति कैसी होती है? यह बताते हैं, अर्थात् उनकी वृत्ति लोकमें रहते हुए भी अलौकिक होती है उनके विरक्ति या निवृत्तिरूप वृत्ति मुख्य रहती है। यथा
उत्तम साधकको दशा अनुसैरता पदमेतत् करविताचारनित्यनिरभिमुखा । एकान्तविरतिरूपा भवति मुनीनामलौकिकी वृत्तिः ॥१६॥
पध जो धारसे है मिश्रपद, पर्याय संयोगी में सदा । सब काम करते हुए भी, नहिं रुचि रखते सर्वदा ॥ वृक्ति उन्हीं की दो सरह, होती प्रवृत्ति निवृत्तिमय ।
पर रुचि मुख्य निवृत्तिरूपा, अलौकिकता ग्रह हर समय 11१६|| अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ एसत्पदमनुसरताम् ] पूर्वोक्त पुरुषार्थसिद्धिके कारण भूत रत्नत्रयपद ( मोक्षमार्ग) को प्राप्त करनेवालोंमें-से, अर्थात् अविरत सम्पग्दष्टि, अणुवती । बतातो श्रावक ( महादती ( मुनिव्रती ) इन तीनों मोक्षमागियोंमें से [ मुनीनां वृत्तिः ] मुनियोंकी वृत्ति ( वर्ताव या अवस्था) [ करविताचारनित्यनिरभिमुखा एकान्सविरतिरूपा अलौकिकी मबति]
१. प्राप्त करने वाले। २. यह पूर्वोक्त मोक्षमार्गीपद ( स्थान )। ३. शिथिलाधार या मिथरागविरागरूप । ४. विरक्त अरुचिकारक । ५, सर्वया निवृत्तिरूप-पूर्ण वीतरागताके सन्मुख उद्यमरूप । ६. रागी जीहोरो भिन्न प्रकार, या आंशिक प्रतियों या चिन्तकों ( अतियों से भिन्न प्रकार ।
गुहल्यो मोक्षमार्गस्थो निर्मोही नैव मोहवान् । अनगारः गृही श्रेयान् निर्मोही मोहिनो मुनेः १५३॥ र, श्रा.