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जीव द्रक्ष्यका लक्षणे क्रमती पड़ेगा। इसके विपरीत पुण्यकर्मों में स्थिति अनुभाग अधिक पड़ेगा इत्यादि । तथापि वह बंध और स्थिति अनुभाग पुद्गल द्रव्यमें स्वयं ही होगा यह वस्तुस्वभाव है क्योंकि वह जड़ है जसे कुछ ज्ञान नहीं है। लेकिन परस्पर अनादिसे निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध पाया जाता है यह विशेषता बस्तुभावकी है। दुष्टान्तके तौर पर जब कोई मंत्र या विद्या साधनेवाला जीव ( ब्यक्ति ) कोई संकल्प- इरादा या रागद्वेषादि विकारीभाव धारणकरके धूली-पानी-अन्न-कंकरपत्थर आदिके माध्यम ( विचौलिया या निमित्त ) से मंत्र, तंत्र, जंत्र विद्या सिद्ध करके उन चोजोंका ( जो स्वयं जड़रूप हैं) पर जीवों के प्रति उपयोग करता है ( उन्हें प्रयुक्त करता है तब दे निमित्त बनकर अन्य जीवोंको सुखदुःखके दाता लोकमें माने जाते हैं, यह मान्यता व्यवहारकी है। निश्चयकी मान्यता यह नहीं है, कारण कि वे धूली आदि जड़रूप हैं एवं उस जीवसे भिन्न हैं उनको कुछ ज्ञान नहीं है कि किसको क्या करना है ? इत्यादि । हो, निश्चयनयसे वह जीव ही जिसके प्रति मंत्रादि का प्रयोग किया जाता है, अपने ऊपर उपस्थित हुए दुःख व सुखका (पर्यायका) ज्ञाता व भोक्ता है। यदि उस समय उस जोवकी दु:खरूप पयोधका वियोग होनेवाला होगा तो हो जायगा एवं फलस्वरूप वह सुखमय ( सुखी ) स्वयं हो जायगा और दुःखपर्यायका वियोग न होनेवाला होगा तो मंत्रादि कुछ नहीं करेंगे ठप्प रह जावेंगे । परन्तु उसी कालमें निमित्त मौजूद होने में अज्ञानी जीवोंका भ्रम हो जाता है कि निमित्तोंने ही यह सब कार्य किया है इत्यादि । वस्तुतः सुख व दु:ख रूप परिणमम जीवद्रव्यमें ही स्वयं होता है, अन्य के द्वारा अन्यमें कुछ नहीं होता। फलत: पुद्गलद्रव्य ही स्वयं पुण्यरूप व पापरूप परिणमती है इत्यादि । उक्त दृष्टान्तसे वस्तुका परिणमन व व्यवस्थापन स्वय सिद्ध स्वतन्त्र समझना चाहिये।
निष्कर्ष परिणाम ही पुण्य और पाप कर्मके बंधनेमें निमित्त कारण होत हैं तथा पुद्गलद्रव्य ही उपादान कारण होती है यह सारांश है । पुद्गल द्रव्य धूली वगैरहमें भी मंत्रादिक निमित्तसे स्वयं विशेष शक्तिरूप परिणमन हो जाता है तथापि परके प्रति निमित्तरूप ही रहता है।
बंधके मुख्य भेव ३ हैं (१) जीवबन्ध-संयोगीपर्याय में जीवके जो विकारोभाव ( रागद्वेषगोहरूप) होते हैं, वहीं जीवबन्ध कहलाता है। कारण कि उनके नष्ट हुए बिना जीव कभी मुच ( मोक्षगामी ) नहीं होता यह नियम है । फलतः मुख्य बन्ध वही है ।
(२) कर्मबन्ध-पुद्गलद्रव्यको पर्यायरूप कर्मपरमाणु ( बन्ध योग्य ) अब अपने रूप रस गन्ध स्पर्श आदि स्वाभाविक गुणोंके द्वारा परस्पर स्कन्धरूप होते हैं अर्थात् बंधते हैं, उसीका नाम 'कर्मबन्ध' है। वह भी जबतक संयोगी पर्यायमें रहता है तबतक जीव मुक्त नहीं होता।
(३) उभयबन्ध-भावबन्ध और द्रव्यबन्धका जबतक परस्पर संयोग सम्बन्ध है तबतक दोनों (जीव व पुद्गल ) बंधे हुए हैं । और जब दोनों पृथक् २ हो जाते हैं तभी मुक्ति होतो है यतः दोनोंका परस्पर वियोग होना ही मोक्ष है इति ।