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जीव दृष्यका लक्षण
उसके पहिले कोई पृथक् २ दो द्रव्ये शुद्ध (पृथक् २) रही ही नहीं है, जिनको एक दूसरेका निमित्त ( आश्रय ) माना जाय । अर्थात् भावकमको-जुदे रागादिको, द्रव्यकर्मका निमित्त माना जाय या द्रव्यकर्म (पर्यायरूप कर्म ) को भावकर्म ( रागादि ) का निमित्त माना जाय, यह नहीं बन सकता, कारण कि जुदी स्थितिमें कर्मरूप अथवा कार्यरूप पर्याय जीव द्रव्य या पुद्गल द्रव्यमें होती ही नहीं है यह नियम है ।...किन्तु कर्मरूप पर्याय जीव व पुद्गलको अनादिसे अयुतसिद्ध रही है अर्थात् संयोगरूप-मिली हुई रही है ऐसा जानना चाहिए। फलतः तब ऐसा ही कहने में व मानने में आता है कि अनादि कर्मबंध, बिना पृथक् निमित्तके ही होता है अर्थात् वही संयोगावस्था उपादान व निमित्तरूप है अन्य कोई निमित्त ( भिन्न ) उसमें नहीं है। तथा इसमें युक्तिव आगम दोनों प्रमाणोंसे विरोध भी नहीं आता। का-.. "नैवं ( दोषः ) अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्मसंबद्धस्यात्मनः तत्र हेतुत्वेनोपादानात्"
(प्रवचनसार माथा नं० २२१ । अर्थात् इतरेतराश्रयताका या भिन्न निमित्तताका दृषण यहीं नहीं आता, कारणक-संयोगी पर्याय अनादि प्रसिद्ध द्रव्यकर्मोसे संबद्ध ( संयुक्त ) आत्मा ( पिण्डरूप ) ही अपने बंधनादिमें स्वयं कारण है, दूसरा कोई नहीं है, यह निर्णय है अस्तु स्वर्ग स्वसे बंध जाता है जैसे रस्सी अपनेको बाँधने में समर्थ स्वयं है अन्यकी अपेक्षा नहीं रखती।
अनाविकर्मपर्याय और अनादि कर्मबंधका खुलासा पुद्गलद्रव्यकी कर्मपर्याय और कबंध, दोनों अनादिकालके हैं-उनको आदि नहीं है। इसलिए तत्वार्थसूत्रकार पूज्य उमास्वामी महाराजके कथन 'अनादिसम्बन्धे च ॥४ा अ०२ के सूत्रसे कोई विरोध नहीं आता, सिर्फ समन्वय करनेकी बात है। कृपया सुक्ष्म शंकाका समाधान भी सुक्ष्म दष्टिसे ही होना सम्भव है वह किम जाय यह शास्त्रीय चर्चा है, किम्बहुना। मेरी समझमें जैसा आया है वैसा लिख दिया है, विचार किया जाय। मेरा क्षायोपशमिक ( अल्प) ज्ञान है। स्वतः या गुरुनियोगात अतत्त्व ( अन्यथा ) श्रद्धान भी हो सकता है आश्चर्य नहीं है। कर्मपर्यायकी अवधि स्थिति भी अनादि सक एक-सो रहे यह नियम नहीं है. वह बदलती रहती है-नया २ बंध व उसकी स्थिति व अनुभाग घटबढ होता ही रहता है। बंध भी वही हमेशा नहीं रहता वह भी बदलता जाता है इत्यादि । प्रायोग्यलब्धिके समय व करणलब्धिके समय क्या २ होता है उसका विचार किया जाय आश्चर्यकी बात नहीं है अस्तु ।
नोट-संयोग, संयोगको जन्म देता है यह प्राकृतिक नियम है है ) जैसे अनादिकालसे लोक संयोगरूप रहा है अत: उससे वैसा ही संयोगरूप लोक उत्पन्न होता रहता है । तदनुसार द्रव्यकर्म ( पुद्गलकी विकारी कार्यापर्याय ) तथा भावकर्म (जीवको विकारी कार्यापर्याय ) दोनोंका संयोग ( अयुतसिद्ध ) संबंध अनादिकालसे चला आ रहा है और आगे भी चला जाता है, जबतक दोनोंका वियोग (पृथक्तारूप संबंध विच्छेद ) नहीं होता। वियोग होना यह भी द्रव्यका स्वभाव है।