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पुरुषार्थसिडधुपाय द्रव्यबेधसे भावबंध, इस प्रकार निमित्तनैमित्तिकरूपसे संतानपरंपरा चलती रहती है जब तक कि 'मोह रागद्वेष' का विनाश नहीं हो जाता।
यहाँ पर इतरेतराश्रय दोष तो होता नहीं है, कारण कि वे सब बदलते जाते हैं जैसे कि बीज व वृक्ष बदलता जाता है..नया र होता जाता है। परन्तु यह शंका हो सकती है कि यह उपर्युक्त प्रकारको निमित्तनैमित्तिकता द्रव्यकर्म के साथ है कि उदयके साथ है ? इसका उत्तर यह है कि उदयके साथ फलको निमित्तनैमित्तिकता है न कि कर्मके अस्तित्वके साथ। कारण कि जब कर्मरूप पर्याय उदयमें आती है ( व्यक्त होती है। तभी उसका फल सुख-दुःख होता है तथा रागद्वेष शाम होते हैं । आश्रम और बंध होता है। यदि उदय न हो खाली सत्ता में कम रहें तो कोई हानि नहीं हो सकती। जब कर्म उदय में आते हैं और फल देते हैं तभी परिणामों के अनुसार बंधादि हुआ करता है । अतएव यह कहना कि 'कर्म फल देते हैं। उपचार है । व्यवहार है ), निश्चय ( सही ) यह है कि कर्मका उदय साक्षात् फल देता है और कर्म परंपरया फल देते हैं अर्थात् वे मूलकारण हैं उनकी ही उदय अवस्था होती है किम्बहुना।
द्रव्यकर्म व भावकर्मका निर्धार सामान्यतः पुद्गलकी अशुद्ध ( संयोगी ) पर्यायका नाम 'द्रव्यकर्म' है। यतः द्रव्य अर्थात पुद्गल द्रव्य की कर्म अर्थात् कार्यपर्यायको ही 'द्रव्यकर्म' कहा जाता है। तथा भाबकर्म अर्थात् जीदद्रव्यको अशुद्धपरिणामरूप कार्यपर्यायको गावकर्म कहा जाता है ।
भावार्थ-पूदगलको विकारी पर्यायका नाम द्रव्यकर्म है और जीवकी विकारीपर्यायका नाम भावकर्म है ऐसा जानना तथा जबतक फल देनेको सामर्थ्य कर्म में रहती है तबतक वह कर्म कहलाता है शक्ति नष्ट हो जानेपर वह पुद्गल रह जाता है।
नोट----कर्मोका कार्य है सुखदुःखको सामनी उपस्थित करना या सुखदुःखके वेदने में निमिसता करना अतः उन्हें कर्मनामसे कहा जाता है। इनकी रचना (निर्माण) पुद्गल द्रव्यसे होती है। इसी तरह पुद्गल द्रध्यसे ही शरीरका निर्माण होता है और वह भी संक्षेप या अल्परूपमें कर्म जैसा कार्य करता है अत: उसे नोकर्म कहते हैं (थोड़ा काम करनेवाला नोकषायकी तरह ऐसा समझना। यह खुलासा द्रव्यकर्म व भावकर्मका प्रसंगवश किया गया है। इसके सम्बन्धमें दूसरी विचारधारा निम्नप्रकार की है--
सूक्ष्म और प्राचीन शंका व समाधान
( इतरेतरराश्रय दोष बाबत ) प्रवचनसार आदि आगमग्रन्थोंमें भावकर्मबंध बद्रध्यकर्मबंधक विषयमें 'इत्तरेतराश्चय' दोषका खंडन करते समय यह समाधान किया गया है कि अनादिकर्मबंधमें यह दोष (इतरेतराश्रय) नहीं आता, कारणांक अनादिकाल से ही आत्मा कर्मबन्ध सहित अशुद्ध पर्यायवाला रहा है तब