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पुरुषार्थसिद्धपुपाय जाती है, उसको सप्तभंगी कहते हैं। उसके दो भेद हैं-(१) प्रमाणसप्तभंगी ( २ ) नयसप्तभंगी इसि । केवलज्ञानको छोड़कर ७ ज्ञानके भेद और ७ नयों के भेद इत्यादि जामना ।
विशेषार्थ नोट-इस श्लोक द्वारा आचार्य महाराजने पुरुष ( आत्मा ) का श्रद्धेय व उपास्य तत्व क्या है ? यह खासकर बसलामा है, उसीसे उद्धार हो सकता है। वह तत्त्व एक चेतन द्रव्य है शेष पाँच जड़ ( अचेतन ) द्रव्य हैं। जब तक मल्यात्मा चेतन व अचेतनका पृथक् २ शाम श्रद्धान नहीं करता तब तक अज्ञानी रहता है और जब चेतन व जड़का भेद जान लेता है और उसमें भी जड़को उपादेय न मानकर एक अपने शुद्ध स्वरूप आत्माको ही उपादेय-श्रद्धेय व उपास्य मानता है तभी निश्चमसे सम्यग्दृष्टि होता है और मोश्चमा अधिकारी ना जाता है ! पलतः दड़की या मृर्तकी उपासना करनेवाला ( सन-धन-जन-प्रतिमा या शास्त्र आदि पुद्गल द्रव्य व उसकी पर्यायोंका उपादेय रूपसे आदर करनेवाला) कभी संसारसे पार नहीं हो सकता न वह सम्यग्दृष्टि कहा जा सकता है अरे ! जड ( अचेतन संयोगोपर्याय ) का उपासक या पूजक ( आत्मज्ञान रहित) कैसे पार पायेगा यह विचारणीय है। बस, यही खास तत्त्व इस श्लोकमें बतलाया गया है।
सारांश-चेतनको चेतनकी उपासना व श्रद्धा करना और सबसे सम्बन्ध विच्छेद करना, यही कार्यकारी है। बह चेतन पुरुष पूर्वोक्त प्रकारका है अन्य प्रकारका नहीं है। यदि भिन्न प्रकार माना जायगा तो मिथ्यात्व होगा इत्यादि । आत्मा ( चेतन) का आलम्बन, आत्मा ही है मान्य: इति मति ( प्रतिमा शास्त्र आदि) का आदर स्मारकरूप निमित्त होनेसे उपचार मानकर किया जाता है सत्य नहीं यह भेद है इसको ठोक २ सपझना चाहिए।
अनुजीवी व प्रतिजीवी गुण जीव ( आत्मा) द्रव्यमें (१) अनुजीबी और (२) प्रतिजीवी दो तरहके गुण रहते हैं । अर्थात् जीवमें विद्यमान रहते हैं या पाये जाते हैं।
(१) अनुजीवीगुणका अर्थ है स्वाश्रित गुण अर्थात् जो अपनी ही अपेक्षासे घटित हो सदा रहे अन्धको अपेक्षा न रखें । जैसे कि जीवद्रश्यमें चेतना-ज्ञानदर्शनसुखबल विशेष गुण अथवा सुख, बोय, जीवस्व वगैरह, जिनसे जीवन सिद्ध होता है व स्वतः सिद्ध हैं-पराश्रित या आपेक्षिक नहीं हैं इत्यादि ।
(२) प्रतिजीबोगुणका अर्थ है पराश्रितगुण अर्थात् जो परको अपेक्षासे घटित होते हैं या प्रतिपक्षी गुणा, जिनमें जीवनका सम्बन्ध नहीं है अर्थात् जो अनुजीवी नहीं हैं भिन्न हैं। जैसे कि अव्याबाधस्थ, यह परकृत बाधासे रहित होने के कारण प्रकट होता है, अनुजीवी नहीं है प्रतिपक्षी हैं। अवगाहस्य, यह परको स्थान नहीं देने से प्रकट होता है या परमें प्रवेश न करनेसे प्रकट होता है। अगुरुलधुत्व, यह परका प्रवेश न होने देनेसे प्रकट होता है। नास्तित्त्व, परमें न रहनेसे यह