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जीव का लक्षण
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पक्ष ) Tetrisो प्राप्त करना हो जीवनका लक्ष्य होना चाहिए - बहुरूपिया के रूप तो अनादिसे बहुत धारण किये हैं परन्तु स्थिर रूप कोई नहीं रहा है । राजा रंक मनुष्य, पशु, कीड़ा-मकोड़ा देव नारक आदि सब रूप न मालूम कितनी बार धारण कर २ के छोड़े हैं। इसका कारण अनेक तरहकी इच्छाओं एवं विकल्पोंका होना तथा उनके निमित्तसे तरह का कर्मबंध होना है । जब कोई विकल्प या इच्छाएं नहीं रहती - निश्चल समुद्रकी तरह स्वयं अपने में स्थिर हो जाता है तब न कोई खतरा रहता है न कर्मोंका आस्रव व बंध होता है । फलस्वरूप अभीष्ट स्थान ( मोक्ष-अचल या परिवर्तन रहित पद ) सदाके लिए प्राप्त हो जाता है जहाँ पर कोई विकार या दोष उत्पन्न नहीं होता अनन्त कालतक एक-सा सुखिया व ज्ञाता दृष्टा बना रहता है | यह सब व्यवहारनयके छोड़ने एवं freenas ग्रहण करनेका फल है । निःस्वार्थ भावका होना दुर्लभ है। निश्चयनयसे जिनाशाके अनुसार हेय, हेय हो रहता है और उपादेय, उपा देय रहता है। किन्तु लोक पद्धतिके ( व्यवहारके ) अनुसार प्रयोजनवश हेय उपादेय माना जाता है यह भेद है। सभी तो लोकका न्याय सच्चा न्याय नहीं माना जाता यह तात्पर्य है अस्तु ।
तथापि संयोगी पर्यायमें
अनेकान्तदृष्टिसे कथंचित् व्यवहारमें उपादेयता बतलाई है, किन्तु हमेशा के लिये वह उपादेयता नहीं है हेयता है ।
earवयः ।
व्यवहश्णनयः स्वाद् यद्यपि पदव्यामि निeिvai g तदपि परममर्थमस्कार मात्र परविरहितमम्सः पश्यतां नैष
किंचित् |१५||
-समयसार कलश
अर्थ- संयोगी पर्याय विद्यमान ( मौजूद ) ज्ञानो जीवोंको यद्यपि व्यवहारनय, ( अरुचि पूर्वक) हाथके सहारेकी तरह सहायक है जबतक कि होनावस्था पाई जाती है ( बालककी या वृद्ध पुरुषकी तरह) परन्तु वह पराधीनता सुखदायक नहीं है-- दुःखदायक ही है । नीतिमें भी कहा जाता है कि 'पराधीन सपनेहु सुख नाहीं कर विचार देखो मनमाहीं' तदनुसार स्वाधीनता अर्थात् निराकुलतामें ही वास्तविक सुख है ऐसा समझना चाहिये। ऐसी स्थिति में जो जीव ( ज्ञानी) निश्चयनसे परसे भिन्न चिच्चमत्कार के पिंड ( एकत्त्वरूप ) सर्वोत्कृष्ट अपनी आत्माके स्वरूपको देख व जान लेते हैं जो कि एकत्वविभक्तरूप व स्वसहाय है, उनकी दृष्टिमें परकी सहायताका कोई महत्त्व नहीं है और न वे उसको उपादेय मानते हैं अपितु उस परसहायतारूप araarat या तुच्छ हो समझते हैं, अपने कार्यमें उसको बाधक ही मानते हैं, साधक नहीं मानते इत्यादि पश्चात् आत्मशक्तिके बढ़ने पर उसका सम्बन्ध विच्छेद भी कर देते है और स्वावलम्बी बन जाते हैं । सम्यग्दृष्टि ज्ञानी अगत्या व्यवहारनयका आलम्बन लेता है (विद्वता बेगारकी तरह करता ) aara उसको वैसा करने में प्रसन्नता या रुचि नहीं होती किन्तु दुःख