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২. মালঘিষ্টাৰ कोज यबहारनय निश्चय के मारगको भित्र भित्र पहिचान करे निज उता :
जब माने निश्चय के भेद व्यवहार सद, कारण है उपचार माने तब बुद्धता ॥
भावार्थ- (१) संसारमें बहुतसे जीव ऐसे हैं कि जिन्हें नयोंका अर्थात् निश्चयनय, व्यवहारनय, द्रव्याथिकनय, पर्यायाथिकनयका तो ज्ञान नहीं है किन्तु एक सामूहिक मिथ्याज्ञान या अज्ञान पाया जाता है जिससे वे शरोर और जीवको एक ही मानते हैं अतएव वे 'बहिरात्मा' कहलाते हैं। उनका ख्याल ( मान्यता ) ऐसा है कि जब शास्त्रों में लिखा है और उपदेश दिया जाता है कि जीव ( आत्मा ) 'शुद्ध' है---अशुद्ध नहीं है, तब उसको शुद्ध करने के लिये क्रियाकांड या उपवासादि तपश्चरण क्यों किया जाय ? व्यर्थ है । पिवस्व पेषणं वैयर्थम्' यह न्याय है अर्थात पिसे हुएको फिर पीसना बेकार है। ऐसा मानकर वे स्वच्छंद होकर वनगजको तरह मनचाहा खानापीना कुकर्म व पाप करना अपना कर्तव्य समझ लेते हैं गरज कि उनको किसी बात का भय व परहेज नहीं रहता। सो आचार्य कहते हैं कि वे अत्यन्त मूर्ख (मूढ़ ) हैं, उन्होंने आत्मा (जीव) की शुद्धताको समझा ही नहीं है और खोटी या गलत धारणाकर संसारमें परिभ्रमणकर रहे हैं। (२) बहुतसे जीव ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि 'आत्मा अनादिसे अशुद्ध है, उसको शुद्ध करनेके लिये दान तथा शील, संयमादि क्रिया करना चाहिये, वे जरूरी हैं, उनके करने से आत्माका हित या कल्याण होता है या आत्मा शुद्ध हो जाता है इत्यादि । आचार्य कहते हैं कि वे भी मूढ मिथ्यादष्टि हैं उन्होंने भी आत्माको शुद्धता-अशुद्धताको नहीं पहिवाना है एवं भूले हैं। ( ३ ) बहुतसे जीव ऐसे हैं कि जो शुद्धता होने के या मोक्ष प्राप्त करनेके दो मार्ग ( उपाय ) मानते हैं व कहते हैं यथा ( १ ) निश्चय मोक्षमार्ग ( २ ) व्यवहार मोक्षमार्ग, और दोनों पृथक् २ हैं। आचार्य कहते हैं कि वे जीव उदंड हैं अर्थात् ही और लड़ाकू हैं अर्थात् व्यर्थ ही बकवाद
और वितंडा करनेवाले हैं, कारण कि मोक्षका मार्ग एक ही है दो नहीं हैं। और वह व्यवहारमार्ग इस प्रकार कहा गया है कि जो जीव अखंड द्रव्य ( वस्तु ) में ज्ञानके द्वारा खंडकल्पना या निर्धार करते हैं परन्तु प्रदेश भेद नहीं करते, वह भेदाश्रित व्यवहार कहा जाता है और वही निश्चयका कारण' है व हो सकता है, दूसरे प्रकारका कोई व्यवहार निश्चयका कारण नहीं हो सकता, यह सारांश है अर्थात् भिन्न प्रदेशी व्यवहार निश्चयका कारण नहीं हो सकता इत्यादि । अतएव निश्चय (अखंड में खंड करना, व्यवहार या उपचार है ऐमा जानना चाहिये तभी वह ज्ञानी सम्यग्दष्टि हो सकता है अन्यथा अज्ञानी व मिथ्यादष्टि ही समझना चाहिये, किम्बहुना । फलतः नयोंका ज्ञान होना एवं विवक्षाको समझना वस्तु स्वरूपको समझने के लिये अनिवार्य है- बिना उसके तत्त्वका स्वरूप व निश्चयव्यवहारका ज्ञान होना असंभव है इति । देखो, सिद्धान्त यह है कि संघोगी पर्याय ( संसार
१. उदंडता या हठ है-दो मोक्षमार्ग मानना है, जो हो नहीं सकते। २. ज्ञानीपना-सम्यग्दृष्टि है, वास्तवमें निश्चय ( अखंड में खंड करना व्यवहार है। और यही व्यवहार 'निश्चयका कारण हो सकता है जो अभिन्न प्रदेशी है इत्यादि सत्य रूप है। ३. जो छहकालामें पं. दौलतरामजी ने कहा है ।