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पुरुषार्थसिखधुपाय उत्पन्न होता है, जिसे सम्बकचारित्र कहते हैं एवं उसका फल मोक्षकी प्राप्ति है, यही सम्पूर्ण फलको प्राप्ति है । संक्षेप में ऐसा समझना कि इन सबमें मूल कारण जिनदेशना--निश्चय और व्यवहारका उपदेश है। उसके बाद निश्चयथ्यवहारका सूत्रानुसार जानना है, उसके पश्चात् माध्यस्थ्यभावका होना है। इस तरह तीनों परस्पर अनुस्यूततया सम्बद्घ है। देशमाके अविकल फल आत्मकल्याण या जीवोंके उद्धारके लिये तीनों अनिवार्य है किसीको भी श्रुटि नहीं होना चाहिये ।
ऐसी स्थिति में सम्यग्दष्टिको स्याहादरूप जिनवाणी, एवं निश्चयव्यवहारका ज्ञाता और माध्यस्थ परिणामी अवश्य २ होना चाहिये तभी वह मोक्षमार्गी व मोक्षमामो परम सुखी आदि महत्त्वपूर्ण फलवाला हो सकता है अन्यथा नहीं, यह सारांश है। फलतः जिनदेशनाके प्राप्त होने पर भी जिन जीवोंका हृदय परिवर्तन नहीं होता ( मिथ्याश्रद्धान नहीं छूटता ) वे कभी संसारसे पार नहीं होते । उनको न जिनवाणीका ज्ञान होता है न वे स्याद्वादको जानते हैं न उनको निश्चय व्यवहारका ज्ञान होता है न माध्यस्थ्यभाव होता है। निश्चयव्यवहारनयके सम्बन्ध निर्णय -----
एवं व्यवहारणयो पलिमिली जाण जिच्छयायेण । णिच्छत्रणयासिदा पुण मुणिको पाति णियाण ।। : १७२ ।।
--समयसार कुंदकुंदासायं अर्थ--निश्चयरूपसे । वास्तविकमें ) व्यवहारनय हेय या निषिद्ध है क्योंकि उससे मोक्ष नहीं होता, किन्तु निश्चयनप उपादेय है कारण कि उसके आलम्बनसे मुन मोक्ष जाते हैं अर्थात् मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं इत्यादि लाभ होता है, अस्तु ।
व्यवहारनयके भेदोंमें भेद
( १ ) लोकन्यवहार, अलेक तरहकी क्रियाओंरूप (२) शास्त्रव्यवहाररूप, जिसके पराश्रित आदि ३ भेद होते हैं। मोक्षमार्गमें वे ही बाधक होते हैं। लोकव्यवहार बाधक नहीं होता यह तात्पर्य है, अस्तु ।। ८ ।।
निश्चयनय और व्यवहारनमें भूल तथा कारणकार्यमें भूल कोज नसनिश्चयसे आत्माको शुद्ध मान, भये हैं स्वछन्द न पिछाने ।पजशुक्षुता । कोज व्यवहार दान शो तप भाषको ही, बातमको हित आम छोडत न मुद्रता ।।
१. आस्माफी शुद्धि---क्रियाका आदिको छोड़ देना है उसकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि आत्मा सदैव
शुद्ध है, यह अशुद्ध नहीं होता ऐसी मान्यता निश्चयाभास है । २. मुर्खता--दानादिसे आत्मकल्याण मानना व्यवहाराभास है ।