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पुरुषार्थसिद्धधुपाये लेसा है एवं कथञ्चित् सन्तुष्ट भी हो जाता है। [ तथा मनिश्चयशस्थ हि व्यवहार एवं निश्चयमा याति ] उसी तरह जिस जीवको निश्चयका यथार्थ ज्ञान नहीं है, वह जीव व्यवहारको ही निश्चय मान लेता है व सन्तुष्ट हो जाता है ।।७।
भावार्थ-अनादिकालसे ब्यवहारको ही निश्चय माननेवाले जीव संसारमें बहुधा अधिक पाये जाते हैं, वे भूले-भटकके जीव अज्ञानी जोव है, कारण कि उनकी निश्चयका न ज्ञान है न महत्व है, व्यवहारदष्टि ( मान्यता ) ही उनको सदैव रहती है। उनके सामने निश्चय जैसी महत्वपूर्ण कोई वस्तु है ही नहीं। रिकार हाती घामो सामने सना शेर न होनेसे बिल्लीके बच्चेको ही वह शेर समझता है । ऐसी स्थिति में कभी उद्धार या भला नहीं हो सकता। सच्चे शेरके जाने विना नकली शेरको जान लेने माथसे उसको शेरका मचा ज्ञाता नहीं कह सकते । नतीजा यह होता है कि उसकी नकली धारणा इतनी मजबूत हो जाती है कि कदाचित् सच्चे शेरका प्रत्यक्ष दर्शन होनेपर भी वह उसको सच्चा और नहीं मानता, झूठा मानता है। अतः जबतक निश्चय ( सत्य ) का दर्शन व ज्ञान न हो तबतक तो वह किसी तरह व्यवहार या असत्यको अपनाये, किन्तु जब सत्यका दर्शन व ज्ञान हो जाय तब वह व्यवहाररूप धारणा ( मान्यता) को छोड़ देवे या छोड़ देना चाहिये । यह आशय या रहस्य है। यही बात जीवकाण्ड गोम्मटसारमें श्रीनेमिचन्द्राचायने लिखी है |७|1
तदनुसार मिथ्या या व्यवहार श्रद्धा तुरन्त छोड़ देना चाहिये, हम नहीं करना चाहिये, वही भद्र परिणामी समझा आयगा । जैसे कि जबतक असली शेरका दर्शन या प्रत्यक्ष न हो तबतक भले ही नकली शेर ( बिल्ली )को तसल्ली के लिए सच्चा शेर मानता रहे किन्तु जब सच्चे शेरका दर्शन व प्रत्यक्ष हो जाय तब तो भ्रम या अज्ञान ( व्यवहारपना ) छोड़ ही देना चाहिए, अन्यथा यह मूर्ख ही कहलायगा और धोखा खायमा, उससे लाभ या मनोरथ सिद्धि न होगी यह तथ्य है। कदाचित् परीक्षाके समय नकली शेर, दूसरे असली शेरका मुकाबला नहीं कर सकेगा। न अपनी व दूसरोंकी वह रक्षा भी कर सकेगा, दुसरे जबर्दस्त या बलवानके देखते ही भाम प्रायगा इत्यादि । उसी तरह प्रकृतमें भी समझ लेना चाहिये । जैसेकि व्यवहाररूप ( सराग ) सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानसम्यक्त्रारिसे भाव व द्रव्य शत्रु ( रागादिक विभाव भाव व द्रव्य कर्म ) नष्ट नहीं हो सकते न आत्मांकी उनसे रक्षा हो सकती है किन्तु निश्चय वीतरागतारूप सम्यग्दर्शनादिसे ही कर्मशत्रुओंका क्षय (विनाश:) होकर आस्माकी रक्षा होती है व मोक्ष जाता है इत्यादि, अतएवं निश्चय ही उपादेयः व हितकारी है ऐसा समझकर उसका ही आलम्बन या ग्रहण करना चाहिए, उससे कभी धोखा न होगा, हमेशा लय या साध्यकी सिद्धि होगी। किम्बहुना आचार्यका दिया हुआ शेर (सिंह) का दृष्टान्त बिलकुल फिट बैठता है । म्लेच्छ भाषाका दृष्टान्त मी बी श्रीकुन्दकुन्दाचार्य ने दिया है संगत वैठता है उनसे सब श्रम मिट जाता है, खुलासा समझमें आ जाता है इति ।
१. सम्माट्ठी ज़ोयो इ8 पक्यां तु सदहदि । सदाहदि असबभावं अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥२७॥ सुत्तायो त सम्म परसिज्जतं जदा ण सहदि । सो चैव हबइ मिछाइट्टी जीवो तदो पहुदी ॥२८॥
-जोक्का