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चाहिए। केवल २ सप्ताहमें २५० कलात्मक प्रतीक संग्रहीत हुए जिसमें कुल २००) रु० लगभग व्यय हुआ। मेरे इस संग्रहमें कई अनुपम व अन्यत्र अनुपलब्ध कृतियाँ भी सम्मिलित हैं। इनमेंसे कुछ-एकका परिचय वैभवमें अाया है। ___इस संग्रहके फलस्वरूप स्वतंत्र भारतके प्रान्तीय शासन द्वारा मुझे जो पुरस्कार प्राप्त हुअा, उसका उल्लेख न करना ही श्रेयस्कर है । पर इतना मैं नम्रतापूर्वक कहना चाहूँगा कि किसी अन्य साधीन राष्ट्रमें ऐसा पुरस्कार किसी कलाकारको प्राप्त होता तो वहाँकी स्वाभिमानी जनता शासनको अपदस्थ किये बगैर न रहती। बात ऐसी हुई कि मुझमें चाटुकारितका बचपनसे अभाव रहा है और शासनको इस पवित्र सांस्कृतिक कार्यमें, अावेशयुक्त चिन्तनके कारण, राजनीतिकी गंध अायो' । अब भी शासन विवेकसे काम लें और आत्म शुद्धि करें। मेरा यह संग्रह "शहीद स्मारक' जबलपुरमें रखा जायगा । अच्छा है शहीदोंकी स्मृतिके साथ शासन द्वारा मेरे संग्रह प्राप्तिका इतिहास भी अमर' रहे ।
'पर वास्तविक तथ्योंसे भारतीय पुरातत्त्व विभागके तात्कालिक प्रधान श्री माधवस्वरूपजी वत्स व उपप्रधान श्री हरगोविन्दलाल श्रीवास्तव (दोनों अवकाश प्राप्त) पूर्णतया परिचित हैं।
मुझे यहाँपर एक घटना याद आ जाती है जो मध्यप्रदेशके सुपसिद्ध साहित्यिक डा. बलदेवप्रसादजी मिश्रसे सुनी थी। वे एक बार किसी रेजीडेन्टको भोरमदेवका मंदिर (कवर्धा) बता रहे थे। उसने डा० साहबसे प्रश्न किया कि गोंड़ोंका इतिहास गोंडकाल में किसीने क्यों नहीं लिखा?, मिश्रजीने कहा कि गोंडकाममें प्रथा थी कि जो सर्वगुण सम्पन्न और सुशिक्षित पंडित होता था उसे गोंडशासक द्वारा विजयादशमी के दिनदन्तेश्वरीके सम्मुख चढ़ा दिया जाता था। ऐसी विकट स्थितिमें इतिहास कौन लिखता? इतिहास लिखकर या अपना पाण्डित्य प्रदर्शित कर काहेको कोई जान-बूझकर मृत्युको निमंत्रण देता । मैं तो किंवदन्ती ही मानता था । उस समयका गोंडवाना आजका महाकोसल हो गया है पर वृत्तिमे' परिवर्तन तो भाजके प्रगतिशील युगमे भी अपेक्षित है।
Aho! Shrutgyanam