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श्रमण-संस्कृतिके इतिहासमें प्रयागका स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण माना
'गया है । जैनसाहित्यमें इसका प्राचीन नाम पुरिमताल मिलता है । कथात्मक ग्रन्थोंसे विदित होता है कि १४ वीं शताब्दीतक यह नाम पर्याप्त प्रचलित था। भगवान् ऋषभदेवको यहींपर केवलज्ञान उत्पन्न भी हुआ था । कल्पसूत्रमें इस प्रकार उल्लेख मिलता है
"जे से हेमंताणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे फग्गुणबहुले, तस्स णं फग्गुणबहुलस्स इक्कारसी पक्खेणं पुवण्हकाल समयंसि पुरिमतालस्स नयरस्स बहिया सगड मुहंसि उजाणंसि नग्गोहवरपायवस्स अहे..."
कल्पसूत्र २१२ श्रीजिनेश्वरसूरि रचित कथाकोशमें भी इस प्रकार समर्थन किया है (११ वी सदी)
"अण्णया 'पुरिमताले' संपतस्स अहे नग्गोहपाययेस्स झाणतंरियाए वट्टमाणस्स भगवओ समुप्पणं केवलनाणं"
कथाकोश प्रकरण, पृ० ५२ 'विविधतीर्थकल्प में भी "पुरिमताले आदिनाथः” उल्लेख मिलता है।
उपर्युक्त अवतरणोंसे सिद्ध है कि पुरिमताल-प्रयाग जैनोंका महातीर्थ था । प्रयाग शब्दकी उत्पत्ति भी इसकी पुष्टि करती है। श्री जिनप्रभसूरिजी अपने 'विविधतीर्थकल्प में उल्लेख करते हैं, "प्रयागतीर्थे शीतलनाथः”
धर्मोपदेशमालामें भी पुरिमतालका उल्लेख है, पृ० १२४ । चतुरशीतिमहातीर्थनाम संग्रह कल्प, पृ० ८५।
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