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महाकोसलको कतिपय हिन्दू-मूर्तियाँ ४०१ गया' । परिकरके बायें भागकी मनुष्याकृतिके एक हाथमें हड्डीके सहारे कंकाल एवं दूसरेमें खप्पर हैं। सम्भव है शिवगणका सदस्य हो । बायाँ भाग खंडित है । हाँ, कटिप्रदेश तक जो आकृति दिखलाई पड़ती है उसके दाहिने हाथमें अंकुश है । प्रभावलीका अंकन एवं नागकन्याएँ आदि आकृतियाँ परिकरके महत्त्वको द्विगुणित कर रही हैं। इसी आकृतिसे मिलती-जुलती दर्जनों शिवमूर्तियाँ उपलब्ध हैं । समान भावनाओंका प्रतीक होते हुए भी कलाकारोंने सामयिक उपकरणोंका जो उपयोग किया है, इससे इन एक भाववाली मूर्तियोंमें न केवल वैविध्यका ही विकास हुआ, अपितु पार्थिव सौन्दर्यका परिपोषण भी हुआ।
१३वीं शतीके बाद भी उपर्युक्त शैवमूर्तियोंको अनुकरण करनेकी चेष्टा की गई है, परन्तु कलाकार सफल नहीं हो सका।
अर्धनारीश्वर एवं पार्वतीकी स्वतंत्र मूर्तियाँ भी उपलब्ध हुई हैं। मेरे संग्रहमें सुरक्षित हैं। इस प्रकारकी एक शैव मूर्ति मुझे बिलहरीके चमारकी नालीमेंसे निकलवानी पड़ी थी। कुछ शैव मस्तक भी प्राप्त हुए थे । एकका चित्र भी दिया जा रहा है।
गणेशको पचासों कलापूर्ण मूर्तियाँ बिलहरी और त्रिपुरीमें ही, अत्यन्त दयनीय दशामें विद्यमान हैं। इस ओर पाई जानेवाली गणेशकी सभी मूर्तियाँ परिकरयुक्त ही हैं। इसमें सन्देह नहीं कि धार्मिक महत्त्वसे भी इनका कलात्मक महत्त्व अधिक है। बड़ीसे बड़ी ६ फुटतककी मूर्ति मिली है । त्रिपुरीमें गणेशकी नृत्यप्रधान मुद्राका विशेष प्रचार रहा है। शक्ति सहित गणेशकी एक अत्यन्त सुन्दर और कलापूर्ण प्रतिमा मेरे निजी
यह प्रयास जैनमुनियोंने शुरू किया था, आचार्य श्री जिनकुशलसूरि प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने ध्वनिको बाँधकर पार्श्वनाथ-स्तुतिकी रचना की।
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