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खण्डहरोंका वैभव
सांसारिक विषयोंका सम्यक् परिज्ञान इन्हीं के तलस्पर्शी अनुशीलनपर निर्भर है । महाकोसलका सामाजिक इतिहास ऐसे ही टुकड़ों में बिखरा हुआ है । सामाजिक चेतनाके परम प्रतीक सम इन अवशेषोंमें कुछ प्रतिमाएँ नर्तकीकी भी हैं, जिनमें आँखोंका तिरछापन एवं अंग- उपांगों का मोड़ बड़ा ही सजीव बन पड़ा है । लोचन कटाक्षका एवं Prospective Photographic Art के नमूने चित्तरंजनके साथ उन शिल्पियोंके बहुमुखी ज्ञानकी ओर मन आकृष्ट कर लेते हैं । भारतीय केशविन्यास के विभिन्न रूपोंका अनुभव महाकोसलकी कृतियोंसे ही हो सकता है।
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लोकजीवन-शिल्पस्थापत्य कला के प्रतीक तत्कालीन लोकजीवन की उपेक्षा नहीं कर सके हैं - कर भी नहीं सकते, यहाँ तक कि लोकोत्तर साधना के केन्द्रस्थान देवगृहोंतक में जो भाव उत्कीर्णित करवाये जाते थे, उनमें लौकिक जीवनका भी निर्देश अपेक्षित था । इसी कारण महाकोसल के प्रचीन स्थापत्यावशेषोंके जो प्रतीक उपलब्ध हुए हैं, उनमें तत्कालीन जनताका आमोद-प्रमोद भी भलीभाँति व्यक्त हुआ है । मानव जीवनमें त्यौहारका स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है । पुरातन काल में ऐसे अवसरोंपर नरनारी एकत्र होकर समान भावसे नाच-गान द्वारा त्यौहार मनाते थे । ऐसे शिल्प मेरे संग्रहमें हैं । जो मुझे बिलहरीके जैनमन्दिर के निकटसे प्राप्त हुए थे । इनमें मृदंग, बाँसुरी, भेरी और झाँझ आदि वाद्योंका अंकन है । कुछ- एक में बाल- सुभल चेष्टाएँ एवं किसीमें विवाहोपरान्त के दृश्य उकेरे हुए पाये जाते हैं। इस प्रकार की शिल्प कृतियोंको भाव शिल्प कह सकते हैं । कारण कि इनमें परिस्थिति जन्य सभी रसोंका बहाव देखा जाता है | पुरुष और नारीके शृंगारका उत्कृष्ट रूप मन्दिरकी चौखटों में परिलक्षित होता है।
नारीके समान महाकोसल के पुरुष भी केश रचना के बड़े प्रेमी मालूम पड़ते हैं, क्योंकि कुछ ऐसे अवशेष मिले हैं, जिनमें पुरुषोंका केश विन्यास
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