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श्रमण-संस्कृति और सौंदर्य
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'ज्यों-ज्यों निहारिये नेरे कै नैननि त्यों-त्यों खरी निखरै सी निकाई ।
जनम अवधि रूप निहार । नयन न तिरिपत भेल । लाख-लाख जुगहिये-हिये राख लं, तबहुँ जुड़न न गेल ॥
-विद्यापति ऊपरवाली पंक्तिमें कितनी मार्मिकता है।
असाधारण कलाकृतिको देखकर स्वभावतः हृदयमें भावोदय होता है, वही सौन्दर्य है। इसका ज्ञान श्रवण और चक्षु इन्द्रियोंसे होता है । जो मानसिक उल्लास है वही सौन्दर्य है । रवीन्द्रनाथने कहा है___ 'अतएव केवल आँखोंके द्वारा नहीं अपितु यदि उसके पीछे मनकी दृष्टि मिली हुई न होतो सौन्दर्यको यथार्थ रूपसे नहीं देखा जा सकता।' ____ सौन्दर्य सार्वजनिक प्रीति है। एक ही कृतिके सौन्दर्य-दर्शक हजारों हो सकते हैं, पर उनका नाश-क्षय नहीं होता । सामूहिक दर्शनके कारण ही इसे सार्वजनिक प्रीति कहा है ।
सौन्दर्योपासकोंकी संख्या आज अधिक है पर वे पार्थिव सौन्दर्य के प्रेमी हैं, सौन्दर्यकी गम्भीरतासे वे दूर हैं। विषयजनित उपासनासे पतन होता है। सौंदर्य प्रीति स्वार्थ रहित होती है। किसी सुन्दरीके सौन्दर्यपर मुग्ध होकर उसके विषयमें पुनः पुनः चिन्तन करते रहना स्वार्थमूलक भावनाका रूप है। वह राग शरीरजन्य सौन्दर्यमूलक है। पारमार्थिक वृत्ति या गुणका उसमें अभाव है। सौन्दर्यका उपासक संयम और नियममें आबद्ध होता है। ___ ''साहित्य'-पृष्ठ ४२ ।
सौन्दर्य वहाँ दृष्टिगोचर होता है जहाँ हमारी किसी आवश्यकताकी पूर्ति होती है । परन्तु एकमात्र आवश्यकताकी पूर्ति ही सौन्दर्य नहीं होता, जब आवश्यकताकी पूर्ति के साथ हमारे हृदयको परम प्रसन्नता होती है तो यह प्रसन्नता आवयश्कतासे अतिरिक्त किसी अन्य वस्तुकी द्योतक होती है । आवश्यकताकी समाप्तिके बाद भी जो वस्तु अवशिष्ट रह जाती है वही सौन्दर्य है।
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