________________
४३०
खण्डहरोंका वैभव
भी चेष्टाएँ की हैं उनमें से कुछेक यहाँ दी जाती हैं- "अध्यात्मको झाँकी" "परमकी पार्थिवताका पार्थिव संसार में अपरम द्वारा विस्तार" "मर्त्य - संसारकी अमर विभूति”, “निस्सीमका ससीम रूप" " नाना रूपात्मक जगत् में अन्तरात्माकी जगमगाहट " आदि आदि । जिनके सोचनेका तरीका बिलकुल वैज्ञानिक है वे आगे बढ़कर कहते हैं - " बाहरी पदार्थोंको जो छाया आभ्यंतर के दर्पण में पड़ा करती है उसीके सहारे कालान्तर में सौंदर्य भगवान्को सृष्टि होती है और उसका मापदण्ड बनता है; और उसीसे उनकी रक्षा और निर्वाह होता है" । और भी व्याख्याएँ हो सकती हैं पर व्याख्याबाहुल्य ही तो उसकी यथार्थतामें चार चाँद नहीं लगाती । सौंदर्य शब्दाश्रित न होकर भावाश्रित है । निम्न वाक्योंपर ध्यानाकृष्ट करनेका लोभ संवरण नहीं कर सकता:
-
"उक्ति वैचित्र्य अथवा काव्यमय उद्गार के बलपर चमत्कार उत्पन्न किया जा सकता है और भाव- जगत् अस्त-व्यस्त और क्षुब्ध भी हो सकता है पर तथ्यनिरूपण, वैज्ञानिक समीक्षा और सहेतुक व्याख्या, विचारोंका ऊहापोह और सिद्धांत निरूपण द्वारा सत्य प्रतिष्ठा नहीं हो सकती । "
निस्संदेह असीमित सत्यको कोई सीमित कैसे कर सकता है। सौंदर्य की प्रत्यक्ष अनुभूति आनन्द रस और सुखके रूपमें होती है । सौन्दर्य ज्ञानेन्द्रियोंकी समवेत देन है” क्योंकि वे ही तो अनुभूतिका माध्यम हैं ।
गीर्वाणगिराके प्रमुख कवि श्री माघने सौंदर्यका उल्लेख यों किया है "पदे पदे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः " रमणीयताका रूपसौंदर्य वही है जो क्षण प्रतिक्षण नूतन आकार धारण करता हो । कविके उपर्युक्त कथनका समर्थन आंग्ल कवि कोट्स इस प्रकार करता है
हिन्दीकी इन पंक्तियोंको भी सौंदर्य समर्थन के लिए रख सकते हैं"A thing of beauty is a joy for ever. Its loveliness increases it will never pass into nothingness."
'हिमालय १२ पृष्ठ १६ ।
Aho! Shrutgyanam