Book Title: Khandaharo Ka Vaibhav
Author(s): Kantisagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 458
________________ खण्डहरोंका वैभव इस प्रसंगपर एक बातको स्पष्ट कर देना उचित जान पड़ता है कि अभीतक हमने भारतीय आदर्श और परम्पराकी सीमाका ध्यान रखते हुए इसका विवेचन किया है, पर आज के प्रगतिशील युग में सीमोल्लंघन अनिवार्य-सा हो गया है । कारण कि जिन दिनों उपर्युक्त मतों की सृष्टि हुई उन दिनोंका सामाजिक वातावरण और राजनैतिक परिस्थितियाँ तथा सोचनेका दृष्टिकोण आजसे भिन्न थे, अतः आजके युगानुसार उनका विश्लेषण नितांत वांछनीय है । आज परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं । समाजका ढाँचा परिवर्तित हो गया है; और जनता की वैचारिक स्थिति में, सापेक्षतः काफ़ी परिवर्तन हो गया है; अतः सामयिक समस्यानुसार स्थायी वस्तुका मूल्यांकन अपेक्षित है। परिवर्तनप्रिय राष्ट्र ही आत्म-सम्मान की रक्षा कर सकता है । एक समय था जब भारतीय संस्कृतिका आधार साम्राज्यवाद था, पर आज जनताका राज्य है । प्रजातन्त्रका सक्रिय समर्थन करनेवाली संस्कृति ही आजको उपयोगिता को समझकर, नवजीवनका संचार कर सकती है । ४२८ प्रसंगतः कहना होगा कि कला प्रयोगात्मक है और सौन्दर्य स्वाभाविक । उपर्युक्त पंक्तियोंसे स्पष्ट है कला में कल्पनाबाहुल्य है । कल्पना मानसिक चित्रोंकी परम्परा है । कलाकारको कल्पना में मानसिक चित्रोंको सुव्यवस्थित करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति रहती है, कल्पनाका उद्देश्य केवल सौन्दर्य-सृजन ही है । अतः वह सोद्देश्य है । इससे कोई यह मत न बना ले कि जो कल्पना- प्रसूत है वही सुन्दर है । क्योंकि शिल्पीकी कल्पना में यदि दौर्बल्य होगा तो वह विपथगामी भी बन सकता है। ऐसा देखा भी गया है । बहुसंख्यक ऐसे कलाकार भी मिल सकते हैं, जो समाज या किसीके द्वारा समात नहीं हुए । इसमें कलाको दोष नहीं दिया जा सकता । कलाकारकी कल्पना भी सप्रमाण और पूर्णत्वको लिये हुए होनी चाहिए । इसीलिए तो कलाके समीक्षकोंने सुनियन्त्रित कल्पनाओं की सन्तानको कला कहा है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि कलाकार आत्मस्थ भावोंको, आनन्दोन्मत्त होकर पार्थिव उपादानों द्वारा व्यक्त करता है, यहाँपर यह भी Aho ! Shrutgyanam

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