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खण्डहरोंका वैभव उस समय मेरी मानसिक विचार-धाराका वेग इतना बढ़ जाता है कि उसे लिपि द्वारा नहीं बाँधा जा सकता । खंडित प्रतिमाका अंश घटोतक दृष्टिको हटने ही नहीं देता। उत्तर स्पष्ट है।
सौंदर्य और आनन्दको अनुभूति वैयक्तिक ताटस्थ्यपर अवलंबित है । किसी संग्रहालयमें जानेपर, सुन्दर कृति देखते ही नेत्र उसपर चिपक-से जाते हैं, तब स्वाभाविक आनन्द आता है। यदि द्रष्टाके मनमें उस समय उसपर अधिकार करनेकी भावना जग उठे तो वह आनन्द तुरन्त विषादके रूपमें बदल जायगा। भौतिक दृष्टि से देखा जाय तो स्वभिन्न वस्तुमें ही आनन्द आता है। अधिकारकी भावना न केवल अनधिकार चेष्टा ही है, पर उससे रस भी भंग हो जाता है। श्रमण-संस्कृतिने पार्थिव आनन्दको विशेष महत्त्व नहीं दिया। वह तो निमित्त मात्र है, वह भी आत्मिक विकासकी अमुक सीमातक । सच्चा आनन्द तो आत्मामें है। उसपर लगे हुए परदे ज्यों-ज्यों हटते जायँगे त्यों-त्यों अपूर्व आनन्दका बोध होता जायगा। यह आनन्द निर्विकल्प है। योगी लोग इसका अनुभव करते हैं । सविकल्प द्रव्याश्रितआनन्द रस-वृत्तिका निर्माण अवश्य करता है, परन्तु साधनको साध्य मानकर उलझ जाना उचित नहीं। वर्तमान श्रमण-संस्कृतिके अनुयायो साध्यकी ओर पूर्णतः उदासीन हैं, साधनोंकी प्रभामें ही चौंधिया गये हैं। अवास्तविकतासे बचनेमें सम्पूर्ण शक्तिका व्यय करना तो उचित ही है, पर इससे वास्तविकताको भूलनेमें औचित्य नहीं है। ___ विश्वमें जितने प्रकारके आनन्द दृष्टिगत हुए, उनको समालोचकोंने आत्मानन्द, रसानन्द और विषयानन्दमें समावेश कर लिया। सर्वोच्च स्थान आत्मानन्द-ब्रह्मानन्दका है । इसीके द्वारा अन्य आनन्दोंकी अनुभूति होती है एतस्यैव आनन्दस्य अन्य आनन्दा मात्रामुपजीवन्ति । विषयानन्द लौकिक
और रसानन्द अलौकिक है। आत्मानन्द वर्णनातीत है क्योंकि इसका माध्यम दूसरा है । अपार्थिव सौंदर्यकी अनुभूति इसीसे होती है। इसका पूर्णतया परिपाक इसोमें सन्निहित है । श्रमण-संस्कृतिका आकर्षण इसी ओर रहा है।
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