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श्रमण 'संस्कृति और सौन्दर्य
जहाँ आनन्दका प्रश्न है वहाँ रस भी उपेक्षणीय नहीं । मानव जातिके उत्थान-पतनमें रसका स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना गया है । परिस्थिति का सृजन बहुत कुछ अंशोंमें रसपर ही अवलम्बित है । इसके द्वारा अनुभूति होती है । यह सुखात्मिका है या दुःखात्मिका, यह जटिल प्रश्न है । प्राचीन और सापेक्षतः अर्वाचीन समालोचकों में एतद्विषयक मतद्वैध है । उनकी चर्चा यहाँ प्रासंगिक नहीं जान पड़ती ।
श्रमण-संस्कृति मानती है कि संसारकी कोई भी वस्तु एकान्त नित्य नहीं है न अनित्य । इसी प्रकार यहाँ कहना पड़ेगा कि विश्वकी कोई भी वस्तु न तो सुरूप है और न कुरूप ही प्रत्येक वस्तुमें रस है, सौन्दर्य है और आनन्द देनेकी शक्ति है । तात्पर्य, जगत् के प्रत्येक पदार्थ में रस उत्पन्न करने की क्षमता है । भिन्न पदार्थों में आनन्ददायक योग्यता भी है । परन्तु सर्वसाधारण जनता के लिए सम्भव नहीं कि वह लाभान्वित हो सके । एतदर्थं तदनुकूल रसवृत्ति श्रावश्यक है । प्रकृति और सौन्दर्य के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तोंसे अपरिचित हृदयहीन सामान्य वस्तुमें आनन्दानुभव कैसे कर सकता है ? वह किसी सुन्दर कृतिको या वस्तुको देखकर क्षणभर प्रसन्न हो सकता है, पर मार्मिकतासे वंचित रह जाता है, वस्तुके अन्तस्तलतक पहुँचने के लिए एक विशेष दृष्टिकी अपेक्षा है । बहुतोंने अपने जीवन में अनुभव किया होगा कि कभी-कभी कलाकार की दृष्टि जनताकी दृष्टि में सुन्दर जँचनेवाली चीज़पर बिलकुल नहीं ठहरती और तद्द्द्वारा उपेक्षित कलाकृतिपर आकृष्ट हो जाती है - वह तल्लीन हो जाता है अपने आपको खो बैठता है । इससे स्पष्ट है, सुन्दर असुन्दर व्यक्तिके दृष्टिकोण-रसवृत्तिपर निर्भर हैं। बहुतसे कलाकारोंमें मैंने स्वयं देखा है कि वे घंटोंतक आकाश में बिखरनेवाले बादलोंकी ओर झाँकते रहते हैं। सरोवर और समुद्र में उठनेवाली लहरोंके अवलोकन में ही अपने आपको विस्मृत कर देते हैं, वनमें प्रकृतिकी गोद में अपूर्व आनन्दका अनुभव करते हैं। मैं स्वयं किसी प्राचीन खंडहर में जाता हूँ तो मुझे वहाँके एक-एक करण में आनन्दरसकी धारा बहती दीखती है और
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Aho! Shrutgyanam
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