Book Title: Khandaharo Ka Vaibhav
Author(s): Kantisagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 450
________________ खण्डहरोंका वैभव परायणता के कारण भौतिक शान्ति स्थापनमें भी असफल साबित हो रही हैं। राजनीति अस्थायी तत्त्व है । इसके द्वारा स्थायी शान्तिको कल्पना करने में तनिक भी बुद्धिमानी नहीं है । बाह्य साधन आंशिक रूपमें परिस्थितिवश, भले ही शान्ति स्थापित कर सकें, पर वह टिकाऊ न होगी । श्रमणसंस्कृति के मौलिक तत्त्व ही विश्व अशान्तिकी ज्वालाको नष्टकर मानव-मानव में ही नहीं अपितु प्राणिमात्र के प्रति समभावकी भावना बढ़ा सकते हैं । श्रमणसंस्कृति क्रान्तिकारी परिवर्तनों में शुरू से विश्वास करती आई है--वशर्ते कि वह अहिंसामूलक हों । श्रमण-संस्कृति आध्यात्मिक सौन्दर्यमें निष्ठा रखती है । तदुन्मुखी आन्तरिक सौन्दर्यको बाह्य उपादानों द्वारा मूर्त्तरूप देने में भी सचेष्ट रही है । भौतिक जीवनको ही अन्तिम साध्य माननेवाले एकांगी कलाकारोंने इस आन्तरिक सौन्दर्यके तत्त्वको आत्मसात् किये बिना ही घोषित कर डाला कि 'श्रमण संस्कृतिका एकान्त पारलौकिक चिन्तन ऐहलौकिक जीवनका सम्बन्ध-विच्छेद कर देता है, अर्थात् कला द्वारा सौन्दर्य बोधकी ओर वह उदासीन है । वह मानती है -- सभी द्रव्य स्वतंत्र हैं । एक दूसरेको प्रभावित नहीं कर सकता तो फिर पार्थिव आवश्यकता में जन्म लेनेवाली कला और उसके द्वारा प्राप्य सौन्दर्य-बोधकी परम्परा इसमें कैसे पनप सकती है ?' इस प्रकारकी विचारधारा भिन्न-भिन्न शब्दों में प्रायः व्यक्त होती रहती है; परन्तु मैं सोचता हूँ तो ऐसा लगता है कि उपर्युक्त विचारोंकी पृष्ठभूमि ज्ञानशून्य व अचिन्तनात्मक है । न मूलवस्तुके विविध स्वरूपों को समझने की चेष्टा ही नज़र आती है, न ऐसे विचारवालोंके पास कलाका मापदण्ड ही 1 है । ये केवल दूषित और साम्प्रदायिक प्रकाशमें ही श्रमण-संस्कृति के अन्तः एवं बाह्य रूपको देखते हैं। उपर्युक्त विचारोंको लक्ष्यमें रखते हुए श्रमणसंस्कृति के बाह्य रूपमें जो कलातत्त्व एवं सौन्दर्य बोध परिलक्षित होते हैं उनपर विचार करना अभीष्ट है एवं श्रमण-संस्कृति द्वारा गृहीत कलात्मक उपादानोंकी ओर भी संकेत करना है । यद्यपि मेरा लक्ष्य केवल भौतिक Aho ! Shrutgyanam ४२०

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