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श्रमण-संस्कृति और सौन्दर्य
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प्रकाश में ही आध्यात्मिकताको देखनेका नहीं है, पर जहाँतक सौन्दर्य एवं रसबोधका प्रश्न है, इसे उपेक्षित भी नहीं रखा जा सकता ।
श्रमण-संस्कृति के इतिहास और साहित्यानुशीलनसे ज्ञात होता है कि इसके कलाकार अदृश्य जगत् की साधना में अनुरक्त रहनेके बावजूद भी दृश्य जगत् के प्रति पूर्णतः उदासीन नहीं हैं । उनका प्रकृतिप्रेम विख्यात है अतः द्रव्यान्तर्गत प्राकृतिक सौन्दर्यकी ओर औदासीन्य भाव रह ही कैसे सकते हैं । सफल कलाकारोंने केवल आन्तरिक चेतनाको उद्बुद्ध करनेवाले विचारोंकी सृष्टि की, न केवल अन्तः सौन्दर्यको मूर्त्तिरूप ही दिया अपितु एतद्विषयक तत्कालीन सौंदर्य-परम्परा के सिद्धांतोंका गुम्फनकर मानव समाजको ऐसी सुलझी हुई दृष्टि दी कि किसी भी पार्थिव वस्तुमें वह सौंदर्य बोध कर सके और उन्होंने सौंदर्य के बाह्य उपादानोंसे प्रेरणा लेनेकी अपेक्षा अन्तःसौंदर्यको उद्दीपित कर तदनुकूल दृष्टि विकासपर अधिक जोर दिया । बाह्य सौंदर्याश्रित जीवन स्वावलम्बी न होकर पूर्णतः परावलम्बी होता है, जब अन्तःसौंदर्याश्रित जीवन न केवल स्वावलम्बी ही होता है बल्कि भावी चिन्तकोंके लिए अन्तर्मुखी सौन्दर्यदर्शन की सुदृढ़ परम्पराका सूत्रपात भी करता है। सौंदर्य श्रात्मा में है, जो शाश्वत है । यही सौंदर्य शिवत्वका उद्बोधक है । कहना न होगा कि कला ही आत्माका प्रकाश है । इसकी ज्योतिसे चाञ्चल्यभाव स्वतः नष्ट होकर शिवत्वकी प्राप्ति होती है ।
भारतीय कला के इतिहाससे स्पष्ट है कि कलाने धर्मकी प्रतिष्ठा में महत्त्वपूर्ण योग दिया है । कला मानवोन्नायिका है, जिसमें मानवता है, अपूर्णता मानवको पूर्णता की ओर संकेत करती है। वर्गसाँने ठीक ही कहा है कि हमारे पुरुषकी कर्मचंचल शक्तियों को सुला देना ही कलाका लक्ष्य है (To put to sleep the active powers of our personality) यह स्थिति आत्मानन्दकी है । यथा
विश्रान्तिर्यस्य सम्भोगे सा कला न कला मता । लीयते परमानन्दे ययात्मा सा परा कला ॥
Aho ! Shrutgyanam
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