Book Title: Khandaharo Ka Vaibhav
Author(s): Kantisagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 449
________________ श्रमण-संस्कृतिका साध्य मोक्ष रहा है, अतः उसकी बाह्य प्रवृत्तियाँ भी निवृत्तिमूलक ही होती हैं। श्रमण संस्कृतिकी आयु बड़ी है, इतिहास की सीमासे परे है । मानवताका इतिहास ही इसका इतिहास है । यह संस्कृति वर्ग विशेषकी न होकर प्राणिमात्र के प्रति समान भाव रखती है । यही उसका परम धर्म है । मानवकी स्वार्थ- प्रसूत भावनाओंको इसमें स्थान नहीं है, स्वयं व्यक्ति ही अपने लिए उत्तरदायी है । उसके उत्थान-पतनमें कोई साधक-बाधक नहीं है | श्रमण संस्कृतिका क्षेत्र मानव जगत् तक ही सीमित नहीं है, प्राणिमात्रकी भलाई इसमें सन्निहित है । सत्य और सुन्दर द्वारा शिवत्वकी ओर प्रेरित करती है । तात्पर्य कि अन्तर्मुखी चित्तवृत्तिकी ओर ही इसका झुकाव है । वह चिरस्थायी जगत् की ओर ही आकृष्ट हो सकती है । उसका दृष्टिबिन्दु अन्तर जगत् है, बाह्य प्रवृत्तियाँ भी अन्तर्मुखी ही होती हैं। श्रमण, विशुद्ध आध्यात्मिक संस्कृतिके, प्रोत्साहक होते हुए भी, समाजमूलक प्रवृत्तियोंकी उपेक्षा नहीं करते थे, हाँ, व्यक्तित्वके विकासका जहाँतक प्रश्न है वह अवश्य कहता है - सर्वथा एकांगी जीवन ही श्रेयस्कर हो सकता है । आत्माको शक्ति जब पूर्ण विकसित होगी, तब वह स्वकल्याणके साथसाथ समाजका भी व्यवस्थित गठनकर कर्तव्य मार्गकी ओर उत्प्रेरित करेगा । 1 श्रमण-संस्कृति अपनी स्थिति बनाये रखने के लिए श्राचारको महत्त्व देती हुई सक्रिय सम्यक् ज्ञानको उद्देश्य सिद्धिका मुख्य कारण मानती है । व्यक्तिका अन्तर्मुखी एवं व्यवस्थित जीवन ही सामाजिक शान्तिका कारण है, कृत्रिम उपाय चिरशान्ति स्थापित नहीं कर सकते । हिंसा और अपरिग्रह ही विश्वशान्तिके जनक हैं । इसीके अभाव के कारण विश्वमें शान्तिका खुलेआम नग्न नृत्य हो रहा है । अशान्तिकी ज्वाला में वे राष्ट्र जल रहे हैं, जो सभ्यताको अपनी बपौती सम्पत्ति माने हुए हैं । अप्राकृतिक शान्ति स्वरूप राष्ट्रसंघ - जैसी संस्थाओंका जन्म हुआ, जो लिप्सा और स्वार्थ Aho ! Shrutgyanam

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