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महाकोसलकी कला - कृतियाँ
प्रासंगिक रूपसे कह देना उचित जान पड़ता है कि इन पगड़ियोंका निर्माणकाल क्रमशः सोलहवीं, सत्रहवीं और अठारहवीं शती है । संख्या १-२ सोलहवीं, ३ सत्रहवीं और ४ अठारहवीं है । ये सभी पगड़ियाँ हमें त्रिपुरी (तेवर ) के उन स्थानोंसे प्राप्त हुई हैं जहाँ लोग शौच जाया करते हैं।
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अब हम पगड़ियोंकी शैली के पूर्व रूपोंपर भी साधारण दृष्टिपात कर लें ।
पगड़ियों का मूल स्रोत
भारतीय देव-देवियोंके मस्तकपर मुकुट श्रावश्यक माना गया है । प्रत्युत वह पूजनका एक अंग भी है। राजाके मस्तकपर राज्य चिह्नके रूपमें मुकुटको प्राधान्य मिला है। यह प्रथा प्राचीन है । कुछ परिवर्तन के साथ विदेश में भी इसका समादर है । परिवर्तनप्रियता मानवको एक रूपमें नहीं रहने देती | समयका प्रभाव सभीपर पड़ता है और वह साहित्य एवं कला के विभिन्न उपकरणों द्वारा जाना जा सकता है । कलावशेष ही तत्कालीन समाज और संस्कृतिके ज्वलन्त प्रतीक हैं । उनमें इनका प्रतिबिम्ब परिलक्षित होता है । उपर्युक्त पंक्तियोंका प्रभाव हमारी उन पगड़ियों 1 पर कहाँ तक पड़ा है ? उनका मूल रूप कैसा था या किस पूर्व रूपका विकास पगड़ियाँ हैं ? आदि बातोंपर लिखना भी अनिवार्य है ।
यद्यपि भारतवर्षकी पगड़ियोंपर पर्याप्त लिखा जा चुका है, अतः यहाँ पर विशेष विवेचन अपेक्षित नहीं है, परन्तु वुन्देलखंड एवं महाकोसलके कलावशेषोंमें व्यवहृत पगड़ियाँ यहीं के पुरातन शिल्प- स्थापत्य एवं मूर्तियों में उत्कीर्णित मुकुटोंका विकसित परिवर्तित रूप जान पड़ती हैं और उसपर शैव संस्कृत्याश्रितं शिल्पकलाका प्रभाव भी स्पष्ट परिलक्षित है । क्योंकि जनजीवन में शैव प्रभाव था, अतः कलात्मक प्रतीकोंपर भी वही प्रभाव है, चाहे अवशेष जैन हों या बौद्ध |
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