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खण्डहरोंका वैभव
तिगवाँ, सिरपुर और बिलहरी में उपलब्ध होती हैं। बैठी मूर्ति यह एक ही मुझेबिलहरीसे एक जैन सज्जन द्वारा प्राप्त हुई है। यह दशम शती बादकी कृति होनी चाहिए - इतः पूर्व यह रूप नहीं मिलता । इस मूर्तिका खुदाव बड़ा और कलापूर्ण है । कलाकारने मूर्तिके आसन के निम्न भागमें नदीका भाव सफलता के साथ अंकित किया है । आगे एक कुम्भ है । गंगा अष्टभुजी है, साड़ी पहने हुए है । इसका परिकर भी सामान्यतः अच्छा ही है, परन्तु खंडित है । केशविन्यास विशुद्ध महाकोसलीय है । मथुरा और लखनऊके संग्रहाध्यक्षोंसे ज्ञात हुआ कि ऐसी मूर्ति उनके पुरातत्त्व संग्रह में नहीं है ।
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कल्याण- देवी - जिस प्रकार रोमन शिल्प स्थापत्यकी अपनी विशिष्ट मुखाकृति मान ली गई है और जिसने अब नृतत्त्व शास्त्र में अपना स्थान पा लिया है, उसी प्रकार इस मूर्तिकी मुखाकृति उपर्युक्त शास्त्रकी दृष्टि से विशुद्ध भारतीय बल्कि विशुद्ध महाकोसलीय दिख पड़ेगी । कहना चाहिए इस मूर्ति में महाकोसलीय नारीसौन्दर्य कूट-कूटकर भरा है । क्या मुख-मुद्रा, क्या आँखोंका तनाव और अंग- उपांगोंकी सुघड़ता । इन सभी में मानो जीवन फूँक दिया है। ओठों और ठुड्डीकी रचनायें कलाकारने जीवन साधनाका जो परिचय दिया है वह अन्यत्र कम प्रतिमाओं में देखनेको मिलेगा । यह भी सपरिकर है । परिकर के निम्नभाग में सिंह बना हुआ I देवी चार भुजावाली है । हाथमें धनुषकी प्रत्यञ्चा है । निम्न भागमें बारहवीं शतीकी लिपिमें श्री कल्याणदेवी खुदा है । प्रान्तीय नृतत्त्व शास्त्र एवं उत्कृष्ट मूर्तिविधानकी दृष्टिसे मैं इसे प्रथम मानता हूँ ।
उपर्युक्त देवीमूर्तियोंके अतिरिक्त योगिनियोंकी मूर्तियाँ भेड़ाघाटके गोलकीमठ में अवस्थित हैं । ये भी उत्कृष्ट मूर्तिकलाकी साक्षात् मूर्ति हैं। महाकोसलके कलाकारोंका गम्भीर चिन्तन एवं सुललित अंकनका परिचय एक-एक अंग में परिलक्षित होता है। गढ़ा में भी एक अत्यन्त सुन्दर सुकुमार मूर्तिकला की तारिका सम नारी मूर्ति ( चतुर्भुजी ) विद्यमान
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