Book Title: Khandaharo Ka Vaibhav
Author(s): Kantisagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 430
________________ खण्डहरोंका वैभव कलाकारोंने किसी प्राचीन कृतिका अनुकरण न करते हुए, महाकोसलके वायुमण्डल में पली हुई नारियोंको ही आदर्श मानकर अपनी साधना द्वारा उनके सौन्दर्यको मूर्त रूप दिया है । ये मूर्तियाँ विशुद्ध महाकोसलीय कलाकी ज्योति हैं । कल्याणदेवीकी प्रतिमामें महाकोसलीय नारीका रूप भलीभाँति प्रतिबिम्बित हुआ है । आभूषण एवं केशविन्यास भी विशुद्ध महाकोसलीय ही व्यवहृत हैं । कुछ प्रधान नारीमूर्तियों का परिचय देना अनुचित न होगा । ४०४ सरस्वती---सरस्वतीकी स्वतंत्र मूर्तियाँ इस ओर कम मिली हैं । मेरे संग्रहमें केवल एक ही प्रतिमा है, जो चतुर्भुजी और खड़ी है । मुखमुद्रापर आभ्यन्तरिक चिन्तनकी रेखाएँ स्पष्ट हैं, फिर भी सौन्दर्यका एकदम अभाव नहीं । माला, पुस्तक एवं कमण्डलु क्रमशः धारण किये हुए हैं । यह प्रतिमा मुझे विलहरी से प्राप्त हुई थी। इस ओरकी मूर्तियों में वीणा नहीं पाई जाती। स्वतंत्र मूर्ति न मिलनेका एक यह भी कारण है कि महाकोसलके मंदिरोंके शिखर के गवाक्ष में ही सरस्वतीका समावेश कर दिया १ जाता था । गजलक्ष्मी --- भारतीय शिल्पकला में गजलक्ष्मीका प्रतीक बहुत व्यापक रहा । मथुरा आदिमें लक्ष्मीकी सुन्दर प्रतिनाएँ उपलब्ध हुई हैं । महाकोसल के ऐतिहासिक उपादानोंमें गजलक्ष्मीका व्यवहार विशेष रूप से परिलक्षित होता है । छठवीं एवं सातवीं शताब्दी के ताम्रपत्रोंकी राजमुद्रा में गजलक्ष्मीकी प्रधानता रहती थी । कलचुरि शासकों के समयतक राजमुद्रा में गजलक्ष्मीकी ही प्रधानता रही। ऐसी स्थिति में इस भू-भागमें 'महाकोसलके निकट ही मैहरमें स्वतंत्र शारदापीठ है । यदि कलचुरि कालमें ख्यातिप्राप्त तीर्थ होता तो इनकी भी स्वतंत्र मूर्तियाँ अवश्य बनतीं । विशेष के लिए देखें, इन पंक्तियोंके लेखकका निबन्ध - "कला तीर्थ - मैहर" । Aho! Shrutgyanam

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