Book Title: Khandaharo Ka Vaibhav
Author(s): Kantisagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 425
________________ महाकोसलकी कतिपय हिन्दू-मूर्तियाँ ३६६ शैवोंके पाशुपत और अघोरी सम्प्रदाय भी इस ओर थे। जैसा कि तात्कालिक व कुछ पूर्ववर्ती संस्कृत साहित्यसे सिद्ध होता है । शक्तिमान्यता तन्निकटवर्ती प्रदेशोंमें भी बहुत व्यापक रूपसे थी । गुप्तकालीन एक लेख भी उदयगिरि की गुफामें पाया गया है। भगवान् शंकरकी तीन प्रकारकी मूर्तियाँ इस ओर मिली हैं। १-शिवपार्वतीकी संयुक्त बैठी प्रतिमा। २ दोनोंकी खड़ी मूर्ति, जैसी विन्ध्यभूभाग में पाई जाती हैं । ३ बैलपर दोनोंको सवारी सहित ( भेड़ाघाट) शिवलिंग तो सहस्रोंकी संख्या में उपलब्ध हैं । त्रिपुरी जंगल में एक जलहरी ६ फीटकी पड़ी है। शैव संस्कृतिकी एक शाखा वामाचारकी मूर्तियाँ भी काफ़ी मिल जाती हैं। कलाकौशलकी दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण प्रतिमाएँ प्रथम कोटिकी ही अधिक मिलती हैं । मैं ऐसी सपरिकर एक प्रतिमाका परिचय देनेका लोभ संवरण नहीं कर सकता . सपरिकर उमा-महादेव-(२५' x १५" ) प्रस्तुत प्रतिमा हल्के रंगको प्रस्तर-शिलापर खुदी हुई है। इसमें उमा और महादेवके चार-चार हाथ हैं। भगवान् शंकरके दायें दोनों हाथ खंडित हैं। बायाँ हाथ पार्वतीकी कमरसे निकलकर दाहिने स्तनको स्पर्श कर रहा है । पार्वतीका दाहिना एक हाथ भगवान्के दायें स्कन्धपर एवं एक ऊपर की ओर धतूरेके पुष्पको पकड़े हुए है। भगवान्के मस्तकका मुकुट खंडित है। कानमें कुण्डल, गलेमें हँसुली एवं माला, हाथोंमें बाजूबन्द, कटिभागमें कटिमेखला एवं चरणमें पैंजन हैं । दाहिना पैर टूट गया है । केवल कमलपत्रपर पड़ा हुआ कुछ भाग ही बच पाया है। पार्वतीके आभूषण महादेवके समान ही हैं । अन्तर केवल इतना ही है कि हाथोंकी चूड़ियाँ एवं माला विशेष है । दोनों गिरिशृंगपर अधिष्ठित बतलाये 'गुप्त गुप्त लेख स० २२ । Aho! Shrutgyanam

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