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खण्डहरोंका वैभव हमारे पूर्वजोंके कीर्तिस्तम्भ रौंदे जाते हैं। कहीं अशिक्षित और कहीं सुशिक्षित जनता द्वारा पुरातत्त्वकी बहुत बड़ी और मौलिक सामग्री बुरी तरह क्षत-विक्षत की जा रही है। माननीय व्यासजीसे, यह सुनकर मुझे अत्यन्त ही आश्चर्य हुआ कि बुन्देलखंडके कुछ ग्रामोंमें जैन और बौद्ध मूर्तियोंके मस्तकों ( अन्य देवोंकी अपेक्षा इनके मस्तक कुछ बड़े भी होते हैं) को धड़से पृथक् कर उसे खरादकर कुण्डियाँ (पथरी) बनाई जाती हैं । उफ़ !
उपसंहार
यहाँपर एक बात कहनेका लोभ संवरण नहीं कर सकता, वह यह कि भारतीय शिल्प और स्थापत्य कलाका मुसलमानोंने बहुत नाश किया है—इस बातको सभी कलाकारोंने माना है, परन्तु यदि सच कहना अपराध न माना जाय तो, मैं कहूँगा कि जितना नाश मुसलमान न कर सके, उससे कई गुना अधिक हमारी साम्प्रदायिकताने किया है। मुसलमानोंने तो केवल मन्दिरोंको मस्जिदोंमें परिवर्तित किया और कहीं मूर्तियाँ खण्डित की, परन्तु पारस्परिक साम्प्रदायिक कालुष्यने तो जैन व बौद्ध आदि मूर्तियाँ एवं उपांगोंको निर्दयतापूर्वक क्षत-विक्षत किया । इन पंक्तियोंका आधार सुनी-सुनाई बात नहीं, परन्तु जीवनका अनुभव है। पटना, प्रयाग, नालन्दा आदि कुछ संग्रहालयोंमें श्रमण-संस्कृतिसे सम्बंधित कुछ ऐसी मूर्तियाँ मिली जिनकी नाक जानबूझकर आरियोंसे तराश दी गई हैं । ऐसे और भी उदाहरण दिये जा सकते हैं।
यहाँपर मैं नगर सभा-संग्रहालयके कार्यकर्ताओंका ध्यान इस ओर आकृष्ट करना चाहता हूँ कि वे पुरातन अवशेषोंको अधिकसे अधिक सुरक्षित रखने के उपाय काममें लावें। जिन सभ्यताके प्रतिनिधि-सम खण्डित प्रतीकोंको पृथ्वी माताने शताब्दियों तक अपनी सुकुमार गोदमें यथास्थित सँभालकर रखा, उन्हें हम विवेकशील मनुष्य अपने ऊपर रक्षाका भार लेकर, अरक्षित छोड़ नष्ट न होने दें। इन पंक्तियोंको मैं विशेषकर इसलिए
Aho! Shrutgyanam