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खण्डहरोंका वैभव सुललित अंकन, शारीरिक गठन एवं उत्प्रेरक तत्त्व आज भी टूटी-फूटी कलाकृतियोंमें परिलक्षित होते हैं । अतः निःसंकोच भावसे कहा जा सकता है कि भारतीय शिल्प-कलाका अध्ययन तब ही पूर्ण हो सकेगा, जब यहाँके अवशेषोंपर, जो आज भी अपेक्षाकृत पर्यात उपेक्षित हैं, गंभोर दृष्टि डाली जाय । विन्ध्य-भूमिके कलावशेष मौनवाणीसे कह रहे हैं कि कला कलाके लिए ही नहीं अपितु जीवन के लिए भी है। यहाँ प्राकृतिक स्थानोंकी बहुलता होनेसे संस्कृति-प्रकृति और कला, त्रिवेणीकी कल्पना साकार हो उठती है। जैन पुरातत्त्व . विवक्षित भूभागका प्राचीन कलावैभव भरहुत स्तूपमें परिलक्षित होता है । यही स्तूप प्रान्तका सर्वप्राचीन कलादीप है। घटनासूचक लेख होनेसे इसका महत्व कलाके साथ इतिहासकी दृष्टि से भी है । भारतीय लोककलाका यह उच्चतम प्रतीक है। शुंगवंशके बाद भारशिव, जो परम शैव थे, शासक हुए । भूमरा जानेका सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है । वहाँ के अवशेष
और नागौद राज्यसे पाये गये प्रतीक उपयुक्त पंक्तिको सार्थकता सिद्ध करते हैं। इस प्रसंगमें नचना और लखुरबाग भी उपेक्षणीय नहीं, जहाँ शैव संस्कृतिके ढेर अवशेष आज भी प्राप्त किये जा सकते है। ये स्थान भयंकर जंगल और पहाड़ियोंपर हैं । दिनको भी वनचरोंका भय बना रहता है । गुप्तोंके समयमें शिवपूजाका प्रचार काफ़ी रहा । बादमें जैन पुरातत्त्वका स्थान आता है। प्रमाणोंके अभावमें निश्चित नहीं कहा जा सकता कि अमुक संवत्में जैन संस्कृतिका इस ओर प्रचार प्रारम्भ हुआ, परन्तु प्राप्त जैनमूर्तियों और देवगढ़के मंदिरोंपरसे इतनी कल्पना तो की ही जा सकती है कि गुप्तोंके समयमें जैनोंका आगमन इस ओर हो गया था। जैनाचार्य हरिगुप्त, जो तोरमाणके गुरु थे, इसी प्रान्तके निवासी थे । प्राकृत साहित्यकी कुछेक कथाएँ भी इसका समर्थन करती हैं।
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