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विन्ध्य प्रदेशका भूभाग प्राचीन कालसे ही भारतीय शिल्प-स्थापत्य कलासे
' सम्पन्न रहा है। भारत एवं विदेशी संग्रहालयोंमें, बहुसंख्यक प्रतीक इसी भूभागसे गये हैं, तो भी आज वहाँकी भूमि सौन्दर्यविहीन नहीं है । भरहूत स्तूप जैसी विश्वविख्यात कलाकृतिका सम्बन्ध इसीसे है, जो आज कलकत्ता और प्रयाग-संग्रहालयकी शोभा है। संसारप्रसिद्ध खजुराहो इसी रत्नगर्भाका एक ज्योति-खंड है, शिल्प-सौन्दर्यका अन्यतम प्रतीक है। एक समय था, जब यहाँ उत्कृष्ट कलाकारोंका-स्थपतियोंका-समादर होता था, शासक एवं शासित दोनों कलाके परम उपासक थे । यहाँकी जनता एवं कलाकारोंने अपनी उत्कृष्ट सौन्दर्यसम्पन्न कलाकृतियोंसे, न केवल इस भूभागको ही मंडित किया, अपितु भारतीय-शिल्पकलाके क्रमिक विकासको मौलिक सामग्री प्रस्तुत कर, भारतका सांस्कृतिक गौरव द्विगुणित बढ़ा दिया । आज भी भारत इसपर गर्व कर सकता है। पार्थिव सौन्दर्यके तत्त्वोंकी परम्पराको यहाँकी जनताने सुन्दर रूपसे सँभाल रखा । शुंग, वाकाटक, गुप्त एवं तदुत्तरवर्ती शासकोंके समय यहाँका सांस्कृतिक धरातल प्रतिस्पर्धाकी वस्तु था। ग्राम-ग्राम और पहाड़ियोंपर इतस्ततः फैली हुई प्राचीन मूर्तियाँ, मंदिर एवं तथाकथित शिल्पावशेष, आज भी अपनी गौरव गरिमाका मौन परिचय दे रहे हैं । विन्ध्यभूमिके अवशेष कलाकारोंकी उदात्त भावधारा, व्यापक चिन्तन एवं गम्भीरताके परिचायक हैं। यहाँके कलाकार कोरे भावुक न थे, एवं न आध्यात्मिक कृतियोंके सृजन तक ही सीमित थे, अपितु उनने तात्कालिक लोकजीवनके विशिष्ट अंगोंको पत्थरपर कुशल करों द्वारा उत्खनन कर, समाजकी विकासात्मक परम्पराको अक्षुण्ण रखा । कल्पनाके बलपर उन्होंने एक प्रकारसे जनताका नैतिक इतिहास, छैनीसे, मौन रेखाओंद्वारा खचित किया । शताब्दियों तक सांस्कृतिक विचारधाराको अपनी दीर्घ साधनासे सुरक्षित रखा । उनकी कल्पना शक्ति, शिल्पवैविध्य,
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