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खण्डहरोंका वैभव
गन्धर्व आदि जो अन्य अवशेषों में
शिल्पकला की दृष्टिसे तो महत्त्वपूर्ण है ही, साथ ही साथ जैनमूर्ति विधानकी दृष्टि से भी विविधता को लिये हुए है । इतने विवेचन के बाद प्रश्न रह जाता है कि इस मूर्तिका निर्माणकाल क्या हो सकता है ? क्योंकि निर्माता और निर्मापक ने इसके निर्माणकाल के सम्बन्ध में कुछ भी सूचित नहीं किया, तथापि अन्यान्य साधन और उपकरणोंसे इसका काल १२ वीं सदीके पूर्व और १३ वीं सदीके बादका नहीं मालूम पड़ता, प्रथम कारण तो यह है कि मूर्तिका आसन एवं विभिन्न देव आभूषण पहने हुए हैं, वे सभी उपर्युक्त सूचित समयके दिखलाई पड़ते हैं । उसके केशविन्यास भी लगभग इसी समयके हैं, और दूसरा कारण यह कि इसमें कुबेरकी मूर्ति दिखलाई गई है, यह १३वीं शताब्दीतककी जैन मूर्तियों में ही पाई जाती है, वादकी बहुत कम ऐसी मूर्तियाँ मिलेंगी, जिनमें कुबेरका अस्तित्व हो । अम्बिकाका जैसा रूप इस मूर्ति में व्यक्त हुआ है, वैसा अन्यत्र भी जैसे खजुराहो, देवगढ़ आदिकी मूर्तियों में पाया जाता है । उन मूर्तियों में इस टाइपकी अम्बिकावाली मूर्तियोंका काल १२ से १३ वीं शताब्दीका मध्य भाग पड़ता है । यह अम्बिकाका रूप दिगम्बर जैन शिल्पग्रन्थों के अनुसार ही है । मूर्ति में व्यवहृत पाषाण भी १२, १३वीं सदीकी शिल्पकृतियोंका है । मूर्तिके आसन के निम्न भाग में दो स्तम्भ दिखाई पड़ते हैं, वे भी काल निर्णय में बहुत सहायता करते हैं । १२वीं से १४वीं सदी के बुन्देल और बघेलखंड के मन्दिरोंके स्तम्भ जिन्होंने देखे होंगे, वे कह सकते हैं कि इस प्रतिमामें व्यपहृत स्तम्भ भी हमारे ही कालके सूचक हैं | पाषाण भी कुछ ललाईको लिये हुए हैं, जैसा कि खजुराहो, देवगढ़ आदि के शिल्प में पाया जाता है ।
संख्या ६—की जैन प्रतिमाकी सम्पूर्ण आकृति देखनेसे ज्ञात होता है कि वह किसी जैन मन्दिर के गवाक्षमें रही होगी क्योंकि दोनों ओर खम्भे, तत्पश्चात् पार्श्वद, मध्य में खड़ी नग्न जैन मूर्ति, दाईं ओर पुष्पमाला लिये गन्धर्व, बायाँ भाग काफ़ी खंडित है । समय १५ वीं सदीका ज्ञात
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