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विन्ध्यभूमिकी जैन-मूर्तियाँ
२८१ ऑफ म्यूज़ियमके कहनेसे ज्ञात हुआ है । निर्माण काल १२ वीं सदीका ज्ञात होता है । कालकी दृष्टि से यह मूर्ति अनुपम है ।
संख्या ४७-की मूर्ति सर्वथा ४२ के अनुरूप ही है, बहुत संभव है कि किसी मन्दिके तीर्थंकरके पार्श्ववर्ती रही हो । इसके ऊर्ध्व भागमें उभय
ओर हाथीके चित्र स्पष्ट रूपसे अंकित हैं । ___ संख्या ४६-लम्बाई ५२ इंच चौड़ाई २६ इंचकी प्रस्तर शिलाकर
अष्टप्रातिहार्य युक्त जिनप्रतिमा खुदो हुई है । इसके दायें बायें घुटने एवं हाथोंकी उँगलियोंका कुछ भाग खंडित है । मस्तकपर सप्तफण दृष्टिगोचर होते हैं । कलाकारने बायीं ओर सर्पपुच्छ, दायीं ओर एक चक्कर लगवाकर इस प्रकार मस्तकके ऊपर चढ़ा दी है, मानो सर्पके ऊपर ही गोलाकार अासनपर मूर्ति अवस्थित हो। उभय ओरके पार्श्वद लम्बे बालवाले चमर लिये खड़े हैं। पार्श्वद बुरी तरहसे खंडित हो गये हैं। नहीं कहा जा सकता कि उनके अन्य हाथोंमे क्या था। पार्श्वदके दायें और बायें हाथोंके पास क्रमशः स्त्रीकी आकृतियाँ अंकित हैं, वे इतनी अस्पष्ट हैं कि निश्चित कल्पना नहीं की जा सकती कि वे किससे सम्बन्धित हैं। तदुपरि दक्षिण भागपर एक कमलपत्रासनोपरि दो बालक एक ही स्थानपर एक ही आकृतिके हैं। इन दोनों के बायें हाथ अभय-मुद्रा सूचक और दायें हाथमें कुछ फल लिये हुए हैं, ठीक ऐसी ही आकृति बाँयीं ओर भी पायी जाती है । नहीं कहा जा सकता कि दोनों ओर इन चार मूर्तियोंका क्या अर्थ है । उपर्युक्त प्रतिमाओंके ऊपरकी ओर फणके दोनों ओर युगल गन्धर्व पुष्पमाला लिये एवं किन्नरियाँ हाथ जोड़े उड़ती हुई नजर आती हैं । दोनोंके मस्तक खंडित हैं । इनके ऊपर छोटी-सी चौकियाँ दिखाई पड़ती हैं, जिनपर आमने-सामने दो हाथ परस्पर शुण्ड मिलाये खड़े हैं । अन्य प्रतिमाओंके अनुसार इसमें भी छत्रको अपनी शुण्डोंके बलपर थामे हुए हैं । अन्य मूर्तियों में जो हस्ती पाये जाते हैं, वे प्रायः निर्जन होते हैं । परन्तु प्रस्तुत प्रतिमा में जो हाथी हैं, उनपर एक-एक मनुष्य आरूढ़ हैं । यद्यपि
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