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विन्ध्यभूमिकी जैन-मूर्तियाँ
है । यहाँ भारतीय मूर्तिकलापर नूतन प्रकाश डालनेवाली पुरातत्त्वकी मौलिक सामग्री, पर्याप्त परिमाण में विद्यमान है । इसमें अधिकांश भाग वाकाटक तथा गुप्तकालीन है । इस संग्रहमें कुछ प्रतिमाएँ जैनधर्म से संबद्ध भी हैं, जो मध्यकालीन जान पड़ती हैं । सौभाग्य से कुछ मूर्तियाँ सर्वथा अखंडित हैं । इन कलात्मक प्रतिमाओंका शब्द-चित्र इस प्रकार है
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(१) २३ " x २३ " की रक्त प्रस्तरकी शिलापर मस्तकपर फन धारण किये हुए, लंबशरीरी भगवान् पार्श्वनाथकी प्रतिमा है। मूर्ति निर्माण एवं वैविध्य दृष्ट्या मूल्यवान् न होते हुए भी इसका शारीरिक विन्यास सापेक्षतः आकर्षक है। पार्श्वदको छोड़कर परिकर आडम्बर शून्य है । इसका निर्माणकाल इतिहास के अनुसार मध्ययुगका अंतिम चरण होना चाहिए, क्योंकि मूर्ति निर्माण कलाका ह्रास इससे पूर्व शुरू हो गया था ।
(२) २४' x १५” मटमैली शिलापर भगवान् मल्लिनाथका प्रतिबिम्ब खुदा हुआ है । जैसा कि निम्नोक्त कलश के चिह्न से स्पष्ट है । मूर्तिका मुख जितना सौम्य एवं सौन्दर्यकी दृष्टिसे उत्कृष्ट है, उतना ही शारीरिक गढ़न निम्नकोटिका है । कलाकारने अपना कौशल न जाने मुखमण्डलतक ही क्यों सीमित रक्खा | अष्टप्रातिहार्य एवं परिकरका अन्य भाग विन्ध्यप्रान्त में प्रचलित रचनाशैलीके अनुसार है ।
(३) २१' x १२' शिलापर केवल बारह प्रतिमाएँ खड्गासनस्थ दृष्टिगोचर होती हैं । इनमें ऋषभदेवका महान् व्यक्तित्व अलग ही झलक उठता है । इस खंडित अवशेषसे कल्पनाकी जा सकती है कि ऊपरके भाग में भी बारह मूर्तियाँ रही होंगी । कारण कि ऋषभदेव प्रधान चौबीसी एक ही शिलापट्ट पर खुदी हुई अन्यत्र भी उपलब्ध होती है । मूर्तिके निम्न भागमें गौमुख, यक्ष एवं चक्रेश्वरीकी प्रतिमाएँ बनी हुई हैं । इसका प्रस्तर जसो में पाई जानेवाली कलाकृतियोंसे मिलता-जुलता है।
उपर्युक्त प्रतिमाओंके अतिरिक्त खण्डितप्रायः जैनावशेष वहाँपर
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