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मध्यप्रदेशका हिन्दू-पुरातत्त्व
३५७ हो जाती है । यही मन्दिर अपने आपमें पूर्ण है। इसमें एक लेख भी पाया गया है, जो कनिंघम सा०की रिपोर्ट में प्रकाशित है। जितना प्राचीन लेख है उतना प्राचीन मन्दिर नहीं जान पड़ता, मैंने वास्तुकलाकी दृष्टि से इसे देखा, परन्तु मुझे एक भी ऐसा चिह्न नहीं दिखलाई पड़ा जो इसे १२वीं शताब्दी तक ले जा सके। मेरे मतसे तो मन्दिरका जो ढाँचा दृष्टिगोचर होता है, वह निश्चित रूपसे मुसलमानोंके पहलेका नहीं है । बल्कि शिखरपर मुग़लशैलीका स्पष्ट प्रभाव भी है। मुग़ल शासकोंके कानोंतक बिलहरी की गौरवगरिमा पहुँच चुकी थी। आइने अकबरीमें बिलहरीके पानका उल्लेख है। सूचित सरोवरके तटपर आज भी पानकी बड़ी-बड़ी बाड़ियाँ लगी हैं । यहाँका पान सापेक्षतः बड़ा और सुस्वादु होता है ।
__ मन्दिरकी चौखट अवश्य ही कलचुरि मूर्ति एवं तोरणका प्रतीक है। पाषाण एवं शिल्पशैली भी प्राचीनताकी ओर संकेत करती है। मन्दिर में व्यवहृतशैलीसे इसका कोई साम्य नहीं। ऐसा लगता है कि जिस प्रकार गर्गीके तोरणको रीवाँ के राजमहलके मुख्य द्वारमें जड़वा दिया है, ठीक उसी प्रकार यह भी, कहींसे लाकर इस मन्दिरमें स्थापित कर दिया है। ऊपरसे बैठाये जानेके चिह्न स्पष्ट हैं । तोरणमें उत्कीर्णित मूर्तियाँ भावशिल्प का स्वस्थ आदर्श उपस्थित करती हैं। मन्दिरका गर्भ-गृह भी आधुनिकतम प्रतीत होता है।
बाहरके भागमें टूटी-फूटी मूर्तियाँ एवं स्थापत्यावशेषोंके खंड रक्खे गये हैं। तारोंसे हाता घिरा हुआ है। पुरातत्व विभागने इसे अपने अधिकारमें रखा है।
मठ
राजा लक्ष्मणराजने बिलहरीमें एक मठ बनवाया था, आज भी गाँवके भीतर एक मठ दिखलाई पड़ता है । मैंने भी इसे सरसरी तौरसे देखा है। मठका ऊपरी भाग दूरसे ऐसा लगता है, मानो कोई राजमहल हो । क्रमशः
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