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खण्डहरोंका वैभव
हम सभी प्रकार से अपने आपको समुन्नत मानते हुए भी, अतीतकी आत्मीय विभूतियोंकी उपेक्षा करते जा रहे हैं। उनकी कीर्तिपर ठोकर मारते जा रहे हैं। क्या स्वाधीन भारत के सांस्कृतिक नवनिर्माण में इनकी कुछ भी उपयोगिता नहीं है ! इनकी मौन-वाणीको सुननेवाला कोई सहृदय कलाकार नहीं है ?
सिवनी
२० मई १३५२
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Aho! Shrutgyanam