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खण्डहरोंका वैभव एवं सामाजिक विकासकी दृष्टिसे भी उतनी ही उपादेय है। यदि सरकार अब भी इस ओर ध्यान न देगी तो बची खुची कीर्तिसे भी हाथ धोना पड़ेगा । जो शासन अतीतके समीचीन तत्त्वोंकी रक्षा नहीं कर सकता वह अधिक समय टिक भी नहीं सकता ।
मूर्तिकला
भारतीय साधनाके इतिहासपर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि प्राचीन कालसे ही सगुण रूपको बहुत महत्त्व दिया गया है। यही कारण है कि मूर्ति कलाका विकास भारतमें काफी हुआ। महाकोसल भी इसका अपवाद नहीं हो सकता था। हजारों वर्षों से निवास करनेवाली आयभिन्न जातियाँ भी, प्रतीकात्मक पूजन किया करती थीं, जैसा कि प्रान्तस्थ प्राचीन गुफाके भित्तिचित्रों, व ग्राम-गृहोंपर खींची गई रेखाओंसे एवं मूर्तिकलासे विदित होता है। इतिहासके प्रकाशमें यदि देखा जाय तो वर्तमान में केवल एक ही कृति इस प्रान्तमें विद्यमान है-वह है गुप्तकालीन तिगवाँ के अवशेष । विशेष सामग्रीके अभावमें भी यह बात समझमें आ सकने योग्य है कि गुप्त कालमें महाकोसल तक्षण एवं मूर्ति कलामें पश्चात्पाद न था। एरणके अवशेष साक्षी स्वरूप विद्यमान हैं । दूसरा कारण यह भी है कि गुप्तकालमें विन्ध्यप्रदेशान्तर्गत नचनाके मन्दिरोंकी सृष्टिं हुई जो महाकोसल के निकट हैं। गुप्तकालीन कुछ प्रथाएँ एवं शिल्प स्थापत्यकी कुछ विशेषताकी परम्परा नवीं शताब्दीतक महाकोसलके विचारशील कलाकारों द्वारा मुरक्षित रह सकी। गुप्तकालीन मूर्तिकलाके प्रमुख तत्त्वोंके प्रकाशमें यदि महाकोशलकी नवीं शतीतकको मूर्तिकलाको सूक्ष्म दृष्ट्या देखें तो उपर्युक्त पंक्तियोंका मर्म समझमें आ सकता है। स्थानीय कलाकारोंने मूर्ति-कलाकी प्राचीन परम्पराका भलीभाँति निर्वाह करते हुए, परिस्थितिजन्य तत्त्वोंकी उपेक्षा नहीं की।
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