Book Title: Khandaharo Ka Vaibhav
Author(s): Kantisagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 417
________________ महाकोसलकी कतिपय हिन्दू-मूर्तियाँ मूर्ति कलाकी दृष्टिसे तो निश्चित विचार तब ही प्रगट किये जा सकते है, जब इस भू-भागकी समस्त प्राचीन प्रतिमाओंका शास्त्रीय अध्ययन किया जाय। उचित अन्वेषणके अभावमें निकट भविष्यमें तो कोई आशा नहीं की जा सकती, परन्तु प्राप्त बहुसंख्यक अवशेष कलाकारको इस बिचारतक तो पहुँचा ही देते हैं कि मूर्तिकलाके आन्तरिक एवं बाह्य उपकरणोंमें यहाँ तक्षकोंने काफी स्वतन्त्रतासे काम लिया और मूर्ति-निर्माणमें तत्कालीन जन-जीवनको न भूले । वे न केवल अपने आराध्य देवकी प्रतिमा तक ही छैनीको सीमित रख सके, अपितु पौराणिक एवं तांत्रिक देवियोंका भी सफल अंकन कर सके थे। कतिपय मूर्तियाँ ऐसी भी हैं, जिनकी मुखाकृतियाँ महाकोसलको जनतासे आज भी मिलती जुलती हैं। मूर्ति रूपशिल्पका एक अंग है । मूर्ति स्थित शील कलाका प्रतीक है। १० वींसे १२ वीं शताब्दीतकके तांत्रिक साहित्यमें देव-देवियोंके रूप भिन्न-भिन्न प्रकारसे व्यक्त हुए हैं, उनमेंसे गणेश, दुर्गा, तारा और योगिनियोंके रूप महाकोसलमें प्राप्त हुए हैं। तादृश चित्र मूर्तिकलामें किस तरहसे प्रतिबिम्बित करना, इस कार्यमें यहाँके शिल्पी बड़े पटु थे। शरीरके अंगोपांग एवं वस्त्र विन्यास, नासिका, चतु एवं ओठोंके अंकनमें जैसी योग्यता परिलक्षित होती है, वैसी समसामयिक अन्य प्रान्त स्थित प्रदेशोंमें शायद कम मिलेगी। तात्पर्य कि मूर्तिकला-विशारदोंकी धारणा है कि ११ वी या १२ वीं शतीके बाद मूर्तिकला ह्रासोन्मुखी हो चली थी, परन्तु यहाँकी कुछ मूर्तियाँ इस पंक्तिका अपवाद हैं। तक्षकोंके सम्मुख निःसंदेह शिल्पविषयक साहित्य अवश्य ही रहा होगा, परन्तु इस विषयपर प्रकाश डालनेवाले न तो साहित्यिक उल्लेख मिले हैं एवं न कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ ही । हाँ, त्रिपुरीमें आज भी 'लढ़िया' जाति है, जिनका व्यवसाय मूतिनिर्माण था और आज भी है। त्रिपुरीमें ही एक समय सैकड़ोंकी संख्या में उनके घर थे। दर्जनों आज भी हैं । एक वृद्धासे मैंने मूतिनिर्माण-विद्या विषयक जानकारी प्राप्त करनी चाही तब उसने अपने Aho ! Shrutgyanam

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