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महाकोसलकी कतिपय हिन्दू-मूर्तियाँ
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फूलों के अतिरिक्त उसकी शलें भी ध्यान आकृष्ट करती हैं जो पुनः कलाकार के सूक्ष्म संयोजन शैलीकी परिचायक हैं ।
विष्णुकी प्रतिमाके पीछे जो प्रभावली है वह भी अनेक बौद्ध प्रभावलियोंकी नाई सुन्दर और सफ़ाईसे काढ़ी हुई है । विष्णु भगवान् कमल के पुष्पके ऊपर खड़े हुए हैं । ये कमल भी दो भक्तों के हाथोंपर आधृत हैं। जो ऊर्ध्वमुखी हैं । कमलकी पंखुड़ियाँ स्पष्ट तो हैं, पर उनमें कोई बारीकीकी रचना नहीं है ।
परिकर
प्रधान प्रतिमाके बाद हमारा ध्यान पहले पार्श्वद युग्मोंकी ओर जाता है, जो कि बहुत सौम्य और सुरुचिपूर्ण है । चरणोंके लगभग दायें बायें सबसे नीचे दो-दो भक्तोंकी जंघाओंके बलपर बैठकर अंजलिबद्ध हो, आराधना में व्यस्त हैं, उनकी मुखमुद्राके भाव तन्मयता, मुख व अंगों की परिपक्व रचनाके बावजूद भी उनकी अगाध भक्तिका परिचायक है। ये दोनों जोड़ियें पुरुषों की ही जान पड़ती है। दोनों जोड़ियोके हाथमें पुष्प एवं नारियलकी भेंटें सुशोभित हैं ।
इस युग्मके बिलकुल ऊपर दोनों ओर दो दम्पति पार्श्वद हैं । समस्त पार्श्वदों में इन दम्पतियों का आकार भी सापेक्षतः बड़ा है । शिल्पकी दृष्टिसे तो इन दम्पतियोंमें सुरुचिकी पूर्ण आभा है, किन्तु तत्कालीन महाकोसलीय एवं भारतीय समाज व्यवस्था और संस्कृतिका भी उसमें परिचय हमें मिलता है । वैष्णव धर्म सामान्य रूपसे गृहस्थ जीवनका अंग बन गया था, जिसमें सहधार्मिक स्त्रीको उदार पद प्राप्त था । इनमें चँवर डुलाने का श्रेय पत्नीको ही दिया गया है । भक्ति-समर्पण में पत्नी ही आगे अपने सम्पूर्ण शृंगार के साथ भगवान्को सेवामें रत है । इन पत्नियोंकी केशराशि सुन्दर अवश्य है, पर बुन्देलखण्ड में सामान्यतः पाये जानेवाले केशविन्यास से किंचित् भिन्न है । नारीका
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