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मध्यप्रदेशका हिन्दू-पुरातत्त्व
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बनजारोंके द्वारा ही सम्पन्न होता था। वे केवल वर्षा काल ही में, जहाँ मुख्यतः जल तथा चारेकी सुविधा हो, (उन दिनों माल परिवहनका माध्यम बैल ही था) चाहे वह स्थान भले ही घनघोर अटवीमें ही क्यों न हो, आवास बना लेते थे। अब प्रश्न रहा संचित सम्पत्तिका, उसे वे अपने अस्थिर निवासस्थानके समीप ही चौतरा बनाकर, उसके मध्यमें रक्तशोषक श्रमसे अर्जित संपत्तिको रखकर, पलस्तर कर, ऊपर ऐसा चिह्न बना देते थे जैसे कोई देवस्थान ही हो। ऐसा करनेका एकमात्र कारण यही था कि लोग इसे सम्मानकी दृष्टि से देखें और धार्मिक मानसके कारण कभी खोदे नहीं। बनजारोंकी परम्पराका संपत्ति-संरक्षणका यह अच्छा ढङ्ग था। जब बे चलते तब अर्थकी आवश्यकया हुई तो निकालते, वर्ना स्मृति पटलपर ही उनका अस्तित्व बनाये रहते थे। इस धन-रक्षण पद्धतिके पीछे न केवल काल्पनिक व किंवदन्तियोंका ही बल है, अपितु कुछ ऐसे भी तथ्य हैं, जिनसे उपयुक्त पंक्तियोंकी सत्यता सिद्ध होती है। उपर्युक्त चौधरीजीने अपने ही गाँवकी एक घटना आँखों देखी, इस प्रकार सुनाई धी___ 'हीरापुर' (जि. सागर) की पश्चिम सीमापर वनके निकट जलाशयके तीरपर लगभग १० वर्गफीट पत्थरोंका एक चौतरा था। जनताने इसे धर्मका स्थान मान रखा था । एक दिन वनजारोंका समूह सायंकाल आकर वहाँ ठहर गया। प्रातःकाल लोग विस्फारित नेत्रोंसे चौतरेकी स्थिति देखकर आश्चर्यान्वित हुए, क्योंकि वह बुरी तरह क्षत-विक्षत हो चुका था। बनजारे भी प्रयाण कर चुके थे, तब लोगोंको इस चौतरेका रहस्य ज्ञात हुआ। __ लालवरांसे सिवनी (C. P.) आनेवाले मार्गमें सातवें मीलपर भयंकर वनमें एक ऐसा ही चौतरा बना हुआ है। चौतरोंका उल्लेख मैंने इसलिए करना उचित समझा कि अवशेषोंके साथ जिन किंवदन्तियोंका सम्बन्ध हो, उनकी उपेक्षा भी, पर्याप्त अन्वेषणके बाद की जानी चाहिए। कबीर साहबके चौतरे भी इस ओर पाये जाते हैं। इसका कारण यह है
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