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मध्यप्रदेशका हिन्दू पुरातत्व
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द्वारा तृषा शान्तिके अर्थतक वापिकाकी उपयोगिता सीमित न रखी, प्रत्युत शान्तिके बाद कुछ प्रमाद आना स्वाभाविक है, अतः विश्राम संयोजना भी साथ रखी । तात्पर्य महाकोसलकी वापिकाओं में विश्रान्ति स्थान भी बनाये जाते थे । विन्ध्य प्रान्तमें भी यह शैली रही थी । मैहरकी वापिका इसका उदाहरण है । बिलहरीमें मुझे दो सुन्दर वापिकाएँ देखनेको मिलीं, दोनों ग्राममें ही हैं । तालाब और नदीके कारण आज उनकी कुछ भी उपयोगिता नहीं रह गई है । पर जब उष्णता बढ़ती है, तब इनकी उपयोगिताका अनुभव होता है । जलकी गरज से नहीं पर तजनित शीत के लिए | दोपहर की धूपसे बचने के लिए लोग इनमें विश्राम करते हैं। क्योंकि एक तो दुमंजिली हैं । विश्रान्ति एवं जलग्रहणके स्थानका मार्ग ही पृथक् है, इसमें सैकड़ों व्यक्ति आराम कर सकें, ऐसी व्यवस्था है । बाहर से तो वापिका सामान्य-सी जचती है पर भीतरसे महल ही समझिए । ऐसी वापिकाएँ खास राजा-महाराजाओं के लिए बना करती थीं । ऐसी वापिकाओं में अन्धकार इतना रहता है कि दिनको एकाकी जाना कम सम्भव है | मैंने इस वापिकाका द्वार भी काफ़ी छोटा पाया, बन्द भी किया जा सकता है । आध्यात्मिक चिन्तन और लेखनके लिए इससे सुन्दर दूसरा स्थान बिलहरीमें तो न मिलेगा । जल हरा हो गया है । यह वापिका भी उत्तम कलाकृति है । एक वापिका मठसे सटी हुई है । साधारण है । पर इसकी निर्माणशैली देखने योग्य है । इसके जलसे खेतकी सिंचाई होती है ।
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कुंड - यहाँपर जलके दो कुंड भी हैं । इनके साथ भी कई किंवदन्तियाँ जुड़ी हुई हैं । इनकी विशेषता यह है कि इसका जल कभी भी समाप्त नहीं होता - कितने ही मनुष्य क्यों न आ जायँ । कुण्डका तलिया साफ़ दिखता है । शायद नपी-तुली कोई भीर आती होगी । यहाँ पिंडदान भी होता है । मेरा तात्पर्यं भैंसाकुण्ड से है । किसी समय यह बिलहरीके मध्य में था । मधुछत्र – यहाँकी विशेष कलाकृति है, मधुछत्र, जो चण्डीमाईके
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