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खण्डहरोंका वैभव सम्पन्न है। अग्रभागकी ऊपरवाली दोनों पट्टियोंपर दशावतार व शैवचरित्रसे सम्बन्धित घटनाओंका सफलांकन है। तीनों ओर जो आकृतियाँ खचित हैं वे भारतीय लोकजीवन और शिवजीकी विभिन्न नृत्य मुद्राओंपर प्रकाश डालती हैं। शिवगण भी अपने-अपने मौलिक स्वरूपोंमें तथाकथित पट्टियोंपर दृग्गोचर होते हैं । साथ ही कामसूत्रके २० से अधिक आसन खुदे हुए हैं। कुछ खण्डित भागोंसे पता चलता है कि वहाँ भी वैसे ही आसन थे, जैसा कि बची-खुची रेखाओंसे विदित होता है। पर धार्मिक रुचिसम्पन्न व्यक्ति द्वारा वे नष्ट कर दिये गये हैं। बाह्य भागकी सबसे बड़ी विशेषता मुझे यह लगी कि प्रत्येक कोणों पर एक नान्दीका इस प्रकार अंकन किया गया है कि दोनों दीवालोंमें उनका धड़ है और मस्तक मिलनेवाले कोणोंपर एक ही बना है। कलाकारकी कल्पना इन कृतियोंमें झलकती है, उसके हाथ काम करते थे, पर हृदयमें वह शक्ति नहीं थी जो रूप-शिल्पमें प्राण संचार कर सके ।
मन्दिरके निकट ही पुरातन वापिकाके खण्डहर हैं । ऐसा ही एक और शैव मन्दिर पाया जाता है।
यहाँ के भूतपूर्व ज़मींदार लोधीवंशके थे। किसी समय कामठा, अपनी विस्तृत ज़मीदारीका मुख्य केन्द्र था। भण्डारा गैज़िटियरसे ज्ञात होता है कि यहाँपर भी सन् ५७ के विद्रोहकी चिनगारियाँ आ गई थीं। कामठाका दुर्ग यद्यपि दो सौ वर्षों से अधिक पुराना है, पर ऐसा लगता है कि उसका निर्माण प्राचीन खण्डहरोंके ऊपर हुआ है। जमींदारीके वर्तमान
'दो धड़ोंके बीच एक पशुकी आकृति बनानेकी प्रथा कलचुरियोंके बादकी जान पड़ती है, कारण कि इस प्रकारकी दो-एक आकृतियाँ धन्सौर (म० प्र०) में पाई गई हैं और एक सिवनी (म०प्र०) के दलसागरके घाटमें लगी हुई है । ये अवशेष १४वीं शताब्दीके बादके जान पड़ते हैं, क्योंकि इनमें न तो गोंड प्रभाव है और न कलचुरियोंके शिल्प वैभवके लक्षण ही।
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