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खण्डहरोंका dra
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जाते हैं उनका वैज्ञानिक अध्ययन अपेक्षित है । फाधर एल्विन व स्व० डा० इन्द्रजीतसिंह ने इस दिशा में कुछ प्रयत्न किया है । नृतत्व शास्त्रीय दृष्टि से भी इनकी उपयोगिता कम नहीं ।
छत्तीसगढ़ नाम सापेक्षतः अर्वाचीन जान पड़ता है । शिलालेख या ग्रन्थस्थ वाङ्मय में इसका नामोल्लेख नहीं है । कुछ लोग चेदीशगढ़का रूपान्तर छत्तीसगढ़ मानने लगे थे, पर इस मान्यता के पीछे समुचित व पुष्ट प्रमाण नहीं हैं । छत्तीसगढ़ों के आधारपर भी इस नाम में सार्थकता खोजें, तो भी निराश होंगे । गढ़-संख्या ज्यादा कम मिलती है। इस भू-भागका प्राचीन नाम कोसल था । इसका इतिहास ईस्वी पूर्व ७०० तक जाता है । महावैयाकरण पाणिनिने अपने व्याकरण में कोसलका निर्देश किया है । भाष्यकारोंने यह उल्लेख दक्षिण कोसल के लिए माना है । आगे चलकर • कोसल दो भागों में विभक्त हो गया । उत्तरकोसलकी राजधानी अयोध्या और दक्षिण कोसल, जिसे आज महाकोसल संज्ञा दी जाती है, वह मध्यप्रदेशका एक भाग था । रामायण काल में दक्षिण कोसलका व्यवहार छत्तीसगढ़ के भू-भागको लक्षित कर किया गया जान पड़ता है । गुप्त-कालमें दक्षिण कोसल, जो पूर्व सूचित भाग ही गिना जाता था, पर उत्तरकोसल सापेक्षित रूपसे त्रिपुरीका निकटवर्ती प्रदेश माना जाने लगा था । समुद्रगुप्त की प्रयागस्थित प्रशस्ति में कोसलकमहेन्द्रराज महाकान्तारक व्याघ्रराज ये शब्द अंकित हैं । इनसे ज्ञात होता है कि उन दिनों दक्षिण कोसल महाकान्तार नाम से विख्यात था और वहाँ व्याघ्रराज शासन करता था । यह कौन था ? एक समस्या है | गुप्तलेख से ज्ञात होता है कि यह वाकाटक पृथ्वीषेण प्रथमका पादानुध्यात व्याघ्रदेव' था । डाक्टर भाण्डारकर इसके विपरीत उच्चकल्पके राजा जयन्त ( ईस्वी सन्
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वाकाटकानां महाराज श्रीपृथ्वीषेण पादानुध्यातो व्याघ्रदेवमाता पित्रोः पुण्यार्थम् — गु० ले० नं० ५४,
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