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खण्डहरोंका वैभव,
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प्राची दिशा सुन्दरशृङ्गशैलं तस्योपरि स्थित्य च आद्य शक्ते, हिमालय पूर्वगुहा च निर्मिता, तपस्विना श्रेष्ठ वसन्ति तत्र वै ॥२॥ सर्वेषु वर्णाऽधिपचारशालिनः प्रपूज्यते रामसशक्तिसानुजैः,
धर्मव्रती धीर च ब्रह्मचारिणः, अधीत्य मस्तोत्र च धीवाग्वरैः ॥३॥
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अनुष्टुप् निवसन्ति सदाचारो युक्तस्य सच् वैष्णवा |
महन्त मथुरादासस्य श्रीमंतः शक्ति शालिनः ॥
रायपुर
छत्तोसगढ़ का मुख्य नगर है । इसके प्राचीन इतिहासपर प्रकाश डाल सकें, वैसी सामग्री अन्धकार के गर्भ में है । पर ऐसा ज्ञात होता है कि रतन - पुरके कलचुरियोंकी एक शाखा 'खलारी' में स्थापित थी । उसी शाखाका नायक 'सिंहा' ने खलारीसे, अपनी राजधानी रायपुर परिवर्तित कर दी । खलारीमें ब्रह्मदेवका एक शिलोत्कीर्ण लेख भी प्राप्त हुआ था, जो अभी नागपुर म्यूजियम में सुरक्षित है । लेखकी तिथि १४०१ ईस्वी पड़ती है । ब्रह्मदेव सिंहाका पौत्र था । अतः निस्सन्देह रायपुरकी स्थापना चौदहवीं सतीके अन्तिम चरणमें हुई होगी । यहाँ एक किला भी पाया जाता है जिसमें कई मन्दिर हैं । किले के दोनों ओर बूढ़ा और महाराजबन्ध नामक दो सरोवर हैं । 'महामाया' का मन्दिर यहीं है । किसी समय किलेमें रहा होगा ।
यहाँ यों तो कई हिन्दू मन्दिर हैं, पर सबमें दूधाधारी महाराजका मन्दिर व मठ अति विख्यात व सापेक्षतः प्राचीन है। अनजानको तो ऐसा लगेगा कि यह मन्दिर रायपुर बसने के पूर्वका है, पर वैसी बात नहीं है, कारण कि पुरातन जितने भी अवशेष मन्दिर में लगे हैं, वे श्रीपुर – सिरपुर से लाकर, यहाँ जमा दिये हैं । कुछ स्तम्भ जिन दिनों पत्थरोंमें संस्कृति और सभ्यता देखनेकी दृष्टिका विकास नहीं हुआ था, उन दिनों
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