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खण्डहरोंका वैभव
पाते हैं- जिन्होंने इतनी महत्त्वसम्पन्न कलाकृतियों की घोरतम उपेक्षा की और आज भी कर रहे हैं । यदि वे ज़रा परिश्रम करते और कमसे कम चुनी हुई विभिन्न मूर्तियाँ, विष्णुवराह मन्दिरके हातेमें ही रखवा देते तो, उनकी सुरक्षा भले ही न हो, पर सौदागरों द्वारा बाहर जानेसे तो बच ही जातीं ! जो मूर्तियाँ मन्दिरके चौतरेपर रखी हैं, उनसे कई गुनी अधिक सुन्दर पूर्ण मूर्तियाँ और अवशेष अरक्षित दशा में पड़े हैं । यहाँका मार्ग दुर्गम होनेसे कुछ महत्त्वकी व पूर्ण वस्तुएँ बच भी गई हैं, चूंकि सौदागरों में इतना नैतिक साहस नहीं कि बड़ी चीजें जनताकी आँखों में धूल झोंककर ले जा सकें ।
बिलहरी में दो-तीन और भी ऐसी चीजें हैं जिनके उल्लेखका लोभ संवरण नहीं किया जा सकता ।
वापिकाएँ
प्राचीन काल में वापिकाएँ निर्माणकी प्रथा बहुत प्रचलित थीं । भारत में सर्वत्र हजारों पुरानी बावलियाँ मिलती हैं । सुकृतों में इसकी भी परिगणना की गई है । राहीको इनसे बड़ी शान्ति मिलती है । जहाँ जल-कष्ट अधिक रहता है, वहाँको जनता इसका अनुभव कर सकती है । यद्यपि महाकोसलमें वापिका-निर्माणविषयक प्राचीन लेख नहीं मिले हैं, पर वापिकाएँ सैकड़ों मिलती हैं । इन सभी में किनकी आयु कितने वर्षकी है, इसका निर्णय तो दृष्टिसम्पन्न अन्वेषक ही कर सकता है । मेरा तो भ्रमण ही सीमित भू-भागमें हुआ है, अतः इस विषय में अधिक प्रकाश नहीं डाल सकता । हाँ, कुछेक वापिकाएँ मैंने मध्यप्रदेश में अवश्य देखी हैं । इनमें गोसलपुर, भद्रावती, आमगाँव, पनागर, तेवर, सिहोरा, चोरबावड़ी आदि मुख्य हैं। मैं प्रथम ही कह चुका हूँ कि महाकोशल के कलाकार बड़े सजग और अग्रसोची थे, उनकी कला " कला के लिए कला" ही न थी जीवनके लिए भी थी । उन्होंने जल
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