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खण्डहरोंका dra
का व्यक्तीकरण पाषाणकी बहुत कम प्रतिमाओं में पाया गया है । यद्यपि महाकोसलके कलाकार, ई ० ० सन् की सातवीं शताब्दी में इस प्रकारकी शैलीको सफलतापूर्वक अपना चुके थे, परन्तु पत्थरपर नहीं । पत्थर की इस प्रतिमाका निर्माण काल १२ वीं शतीके बादका नहीं हो सकता । तात्पर्य यह है कि ७ वीं शताब्दी के शिल्पियोंकी वैचारिक एवं कला परम्पराको १२वीं शतीके कलाकार किसी सीमातक सुरक्षित रख सके थे। इसके समर्थनमें और भी उदाहरण दिये जा सकते हैं ।
मूर्तिकी मुखमुद्रा सौम्य और अन्तर्मुखी प्रवृत्तिका आभास देती है । ओठोंकी सुकुमार रेखाएँ, ठोड़ीके बीचका छोटा-सा गड्डा, तीक्ष्ण नासिका, और कमल - पत्रवत् चक्षुओंने सिद्धार्थके शारीरिक वैभव और व्यक्तित्वका समन्वय प्रस्तुत किया है । कानोंकी लंबाई भले ही मूर्ति-विधान के अनुरूप हो, परन्तु सौन्दर्यकी अपेक्षा उपयुक्त नहीं जान पड़ती। मूर्तिके परिकरपर भी विचार करना आवश्यक है क्योंकि यही उनकी विशेषता है । परिकरान्तर्गत जीवनकी प्रधान व अप्रधान जो भी घटनाएँ बतलाई गई हैं, उनका क्रम इस कृति में नहीं रह पाया है, जैसे प्रथम घटना स्त्रस्त्रयुं स्वर्ग से लौटने से संबंध रखती है । जब इसमें उसे दूसरे नंबर पर रक्खा गया है। प्रथम घटना जो इसमें दिखलाई गई है, उसमें बुद्धदेवका लालन-पालन हो रहा है । बुद्धदेवका बाल स्वरूप बड़ा मोहक है । दूसरी रचना स्वर्गच्यवन से संबद्ध है । इसमें सुन्दरी विलास-मयी मुद्रामें खड़ी हुई है । दाहिने हाथ के नीचे कटिप्रदेशके पास लघु बालक इस प्रकार बताया गया है, मानो वह कटिप्रदेश से उदर में प्रवेश करना चाहता हो । लोगोंको इसे पढ़कर तनिक भी आश्चर्य न होना चाहिए, कारण कि इस प्रकारकी सैकड़ों मूर्तियाँ बिहार में पाई गई हैं। तीसरी प्रतिमामें सवस्त्र सिद्धार्थ बायें हाथ में दायें हाथकी उँगली टिकाये बैठे हैं, प्रतीत होता है मानसिक ग्रंथियाँ खोलकर उन्नतिके पथपर अग्रसर होनेकी चिन्ता में हों । दोनों ओर शिष्य - मंडली अंजलि बद्ध हैं । चतुर्थं मूर्ति खड़ी हुई और वर मुद्रामें है । बुद्ध-दान के भाव में परिलक्षित
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