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खण्डहरोंका वैभव
मालूम हुआ कि सं० १७०३ वैशाख शु० ६को दाजीभाऊ नामक व्यक्तिने गजानन महाराजकी प्रतिमा केलभर में स्थापित की ।
यह मन्दिर अभी भी तीर्थ के रूप में पूजित है । यहाँ सीताफल खूब होते हैं।
भद्रावती — जैमिनीके महाभारतमें इसे युवनाश्वकी राजधानी कहा गया है । यहाँपर बिखरे हुए सैकड़ों कलापूर्ण अवशेषोंसे प्रकट है कि किसी समय यहाँ हिन्दू-संस्कृतिका भी प्रभाव था । मूर्ति - विज्ञान और तक्षणकलाको दृष्टिसे प्रत्येक कला-प्रेमीको एकबार यहाँकी यात्रा अवश्य करनी चाहिए । यहाँका भद्रनागका मन्दिर पुरातन कलाकी दृष्टिसे अध्ययनकी वस्तु है । यह नागदेवताका मन्दिर है, जो सारी भद्रावतीके प्रधान अधिठाता थे । इसके गर्भगृहमें नागकी बहु फनवाली बड़ी प्रतिमा तथा बाहरकी दीवारों पर जैसा शिल्पकलात्मक काम किया गया है, उसकी सूक्ष्मता, गम्भीरता और प्रासादिकता देखते ही बनती है । शेषशायी विष्णु की प्रतिमा अतीव सुन्दर और कलाकारकी अनुपम कुशलताका परिचय देती है । मूर्तिकी नाभिकी श्रावलियाँ तदुपरि रोम-राजि, कमलकी पंखुड़ियाँ, नालकी विलक्षणता, ब्रह्मा के मुख से भिन्न-भिन्न भाव आदि बड़े ही उत्कृष्ट हैं । पास ही लक्ष्मी चरण- सेवन कर रही हैं । दशावतारी पट्टक यहाँपर भी है। दीवारोंपर अंकित शिल्प कहींसे लाकर लगवाये गये ज्ञात होते हैं । बाहर के बरामदे में वराहकी प्रतिमा अवस्थित है । पास हीमें १८ वीं शतीके एक लेखका टुकड़ा पड़ा है। इस मन्दिरसे कुछ दूर एक नई गुफा निकली है, जिसमें कुछ प्राचीन अवशेष हैं। जैन मन्दिरके पश्चात् भागमें चण्डिकादेवी का भग्न मन्दिर है | यह मन्दिर लगता तो जैनियोंका है, पर अभी हिन्दुओं द्वारा भी माना जाता है । बरामदे में कुछ मूर्तियाँ विराजमान हैं । मन्दिरके निर्माणका लेख तो कोई नहीं है, पर अनुमानतः यह १४वीं शतीका होगा । मन्दिर से चार फर्लांग दूर डोलारा नामक विशाल जलाशय के तटपर एक टीला है, जो ध्वस्त मन्दिरका द्योतक है। तन्निकटवर्ती शिल्पों में योगिनी
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