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खण्डहरोंका वैभव
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है । दाहिनी ओर सूर्य तथा बाईं तरफ़ विष्णुकी सुन्दर प्रतिमा, जो लक्ष्मीको गोदमें लिये हुए - गरुडारूढ़ हैं । बाँई ओर दीवार में अष्टभुजी गणेशकी प्रतिमा है । इस प्रतिमाकी विशेषता यह है कि यह नाचती हुई बताई गई है । कलाकी दृष्टिसे यह मूर्ति सर्वोत्तम है । दूसरे भाग में कलचुरि सम्राट् गांगेयदेव, कर्णदेव तथा यशः कर्णदेवकी समकालीन मूर्तियाँ हैं, जो सामूहिक शिल्पकरणीका एक नमूना है । यहाँपर एक बिस्तरपर लेटे मानवकी ३||| x २ फीटकी प्रतिमा है । एक स्त्री झुककर उसके कानमें कुछ कह रही है और वह भी कानपर हाथ लगाकर श्रवण करनेका प्रयास कर रहा है । और भी तीन-चार स्त्रियाँ पासमें लेटी हुई हैं । मन्दिरके चारों ओर गोलाकार दीवार में चौसठ योगिनियों की प्रतिमाएँ विराजमान हैं। जिनकी बनावट स्थूल और कड़कीले पाषाणकी है। अधिकतर प्रतिमाएँ कलचुरि मूर्ति-कलाकी उत्कृष्टतम तारिकाएँ हैं । इन मूर्तियोंको देखनेसे मालूम होता है कि इनके भावोंको विचारने में, और मस्तिष्क - स्थित ऊर्मियोंको इन पाषाणोंपर उत्कीर्णित करने में अनेक वर्षोंका व्यय करना पड़ा होगा । इनमें मुखमुद्राका सौन्दर्य युक्त विकास, शारीरिक गठन, अंग-प्रत्यंगपर कलाका आभास, सूक्ष्मता, आभूषणोंका बाहुल्य आदि विशिष्टताएँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और विचारोत्तेजक हैं । कलचुरि - कलाका ज्वलन्त उदाहरण इससे बढ़कर प्रान्तमें नहीं मिलेगा । ये प्रतिमाएँ तन्त्रशास्त्रों से सम्बन्धित हैं । जिस योगिनीका जैसा रूपवर्णन उपर्युक्त ग्रन्थोमें आया है, ठीक उसीके अनुरूप उनकी रचना कर, कलाकारने अपने कौशलका सुपरिचय देखकर, कलचुरि - राजवंशको साके लिए अमर बना दिया है । इनके बिना प्रान्तीय मूर्ति - विज्ञानका इतिहास सर्वथा अपूर्ण रहेगा । इन मूर्तियों में गणेशकी एक मूर्ति महत्त्वपूर्ण है । उसमें गणेश स्त्री रूपमें हैं । इन मूर्तियों के अतिरिक्त शैव धर्मसे सम्बन्धित विशाल शिल्प - स्थापत्य भी प्राप्त है, जो कलचुरि - राजवंशका शैव-प्रेम सूचित करता है । कुछ वात्स्यायन के कामसूत्रके विषयको
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