________________
३५२
खण्डहरोंका वैभव
उपर्युक्त पंक्तियों में जो योगिनियोंकी संख्या दी गई है, वह अधिक है। ६४ योगिनियों के अतिरिक्त देवियाँ भी इसमें सम्मिलित कर दी गई हैं । ज्ञात होता है कि बढ़ते हुए तंत्रवादने इनकी संख्या में वृद्धि तो कर डाली पर जो शास्त्रीय एकरूपता कायम रहनी चाहिए थी, वह न रह सकी। मेरा तो अनुमान है कि साधकको जिसका इष्ट था, उसकी मूर्ति बनवाता गया और यहाँ प्रतिष्ठित करवाता गया। यदि ऐसा न होता तो शास्त्र परम्परापर पनपनेवाले तांत्रिक केन्द्रमें इतना अन्धेर न मचता ।
कालके प्रमावसे जैनधर्म भी तंत्रपरम्परासे न बच सका । योगिनियोंकी मान्यताने न केवल जैन धर्म में प्रवेश ही किया अपितु बादमें इस परम्परा पर प्रकाश डालनेवाले तंत्रात्मक ग्रन्थोंका भी सुजन होने लगा। परन्तु श्राश्चर्यकी बात तो यह है कि हिन्दुओंके अनुसार जैनोंको योगिनियोंके नामोंमें एकरूपता कायम न रह सकी। मेरे सम्मुख अभी विधिप्रपा और भैरव पद्मावतीकल्प अवस्थित हैं, दोनोंमें विभिन्न रूपसे योगिनियों के नाम पाये जाते हैं। इतनी बड़ी शक्ति परम्परामें जब नामैक्य न रह सका तो साधना पद्धतिमें एकताकी कल्पना ही व्यर्थ है ।
पनागर
जबलपुरसे उत्तर में ६ मीलपर यह बसा हुआ है। पुरातत्त्व-अभ्यासियोंने इसे आजतक पूर्णतया उपेक्षित रखा है। फकीरे काछीके घरके पीछे अमरूदके पेड़की सुदृढ़ जड़ोंमें, सात फीटसे अधिक ऊँची, सपरिकर सूर्य-मूर्ति बुरी तरहसे फँसी पड़ी है । वह कुछ खंडित भी हो गई है । मूर्ति श्याम शिलापर उत्कीर्णित है। पानी अधिक गिरनेसे ऊपर खूब काई जम गई है। मूर्ति का विशाल परिकर व अन्य उपमूर्तियाँ कलाका भव्य प्रतीक हैं। भग्नावस्थामें भी वह अपने स्वाभाविक सौन्दर्यको लिये हुए है । कलचुरि कालीन अनेक आभूषणसे विभूषित है । पूर्णालंकार तो बहुत ही सुन्दर है। मुख्य प्रतिमाके निम्न भागमें दोनों ओर
Aho! Shrutgyanam