________________
खण्डहरोंका वैभव बौद्ध धर्म अवश्य ही रहा । डा० हीरालालजीने जो समय बौद्ध धर्मके अस्तित्वका सूचित किया है, उससे ३०० वर्ष आगे माना जाना चाहिए । सम्भव है डा० सा० के समय, ये अवशेष, जिनके आधारपर ३०० वर्षों का काल बढ़ाया जा सका है, भूमिमें दबे पड़े हों।
प्रासंगिक रूपसे एक बातका स्पष्टीकरण करना समुचित प्रतीत होता है । मैंने बौद्ध धर्मकी जितनी प्रतिमाएँ-क्या धातुकी और क्या पाषाणकी-देखीं, उनमें कमल-पत्रका-नीचेकी ओर झुकी हुई पंखुड़ियोंके रूपमें कमल सिंहासन-बाहुल्य पाया । प्राचीन ग्रन्थोंमें भी बौद्ध धर्ममें अलौकिक ज्ञानको कमल-पुष्पसे दिखाया गया है । उनके अनुसार कमलकी जड़का भाग ब्रह्म है । कमलनाल माया है । पुष्प संपूर्ण विश्व
और फल निर्वाणका प्रतीक है। इस प्रकार अशोकके स्तम्भका शिलादण्ड (कमल-नाल ) माया अथवा सांसारिक जीवनका द्योतक है। घंटाकार शिरा संसार है-आकाश-रूपी पुष्प दलोंसे वेष्टित हैं-और कमलका फल मोक्ष है । इस विषयपर सुप्रसिद्ध कलामर्मज्ञ हैबेलकी युक्ति बहुत हो सारगर्भित और तथ्यपूर्ण है-“यह प्रतीक खासतौरपर भारतीय है । इसका प्रारम्भिक बौद्ध-कलामें बेहद प्रचार था। यह इत्तिफ़ाककी बात है कि इसकी शक्ल ईरानीके पीटलोंसे मिलती है, किन्तु कोई वजह नहीं कि इसीसे हम इसे ईरानी चीज़ मान लें । शायद ईरानियोंने ही यह विचार भारतसे लिया हो । भारत तो कमलके फूलोंका देश है।" निःसन्देह कमल भारतका अत्यन्त प्रसिद्ध और मनोहर पुष्प है । जिन दिनों यक्ष पूजाका भारतमें बोलबाला था, उन दिनों कमलका भी कम महत्त्व नहीं था । भारतीय शिल्पकलामें जितना महत्त्वपूर्ण स्थान कमल पा सका है, उतना दूसरे पुष्प नहीं । योगमार्गमें भी यौगिक उदाहरणोंमें कमलको याद रखा गया है। जबलपुर, म. प्र. १५ अगस्त १९५०
Aho! Shrutgyanam